'बेबसी '
'बेबसी '


एक औरत की पहचान में है बेबसी
वो क्या है, वो क्यूँ है, वो कैसी है
बस यही सोचती रही
हर पल खुद को पहचानती
सब की नज़रों मे खुद की छाप बनाती
प्रेम बांटती, रंग भरती, दिन भर काम मे रहती,
फिर भी उफ़ ना करती
जन्म से ही कर्म बनाती
दो कुलों का मान बढ़ाती
सब कुछ करती, सपने संजोती
सबकी ये पहचान है बनती
कभी मां बनती,कभी बहन,
कभी बेटी और पत्नी
सब रिश्तों का मान बढ़ाती
कभी सीता बनकर,
कभी लक्ष्मी बनकर हर रुप संवारती
जन्म से ही त्याग की पहचान बनती
फिर भी ये सम्मान को रहती है तरसती
ना जाने कितनी सीताओं ने दी है अपनी परीक्षा
त्याग की मूरत होते हुए भी इन्हें कोसा गया
यह कुल की रीत चली है
नारी हर परीक्षा मे चढ़ी बस बली है,
त्याग,प्रेम,सत्य की ही तो बलि चढ़ी है
माँ सीता का रूप धरी है
यही है एक नारी की बेबसी
बस यही सोचती रही मैं
कि आखिर ऐसा क्यूँ है
क्यूँ एक नारी को उसका हक,
उसका सम्मान नही मिलता