बचपन रुक जा ज़रा
बचपन रुक जा ज़रा
उम्र के इस पड़ाव में
महसूस होने लगा
कोई छिपा था अंदर
हिचकोले खाने लगा
दिल की हरारत को
महसूस होने लगा।
मेरा बचपन जो गुम था
नज़र आने लगा
हम दिलों में शामिल है
कही जीना क्यूं छोड़ दिया
बचपन में कहीं।
जिंदा रखो, जीयो खुलकर
बेपरवाह दुनिया से दूर
हँसो ठहाके मार के।
मेरे आंगन में कविता
खेलती है मेरी
मेरी कलम मुझसे
बातें करती है हमारी
मेरे बचपन तू कहीं
ना जाना, मेरे दिल में थामे
डर को कहीं दूर ले जाना
मेरी उम्र भर कर बाल्टी में
ले जाना कहीं दूर
समंदर में उड़ेल आना
मुझे यादों में आकर
मत सताना।
मुझे फिर से मेरे बचपन
जीना सिखाना
वो मीठी सी नींद
दे जाना।
बेपरवाह बदमाशियां
करना सिखा देना
फिर से जीना सिखा देना
वो कट्टी अब्बा वाली
बातों को फिर से दिल
को लुभा देना
मेरे बचपन
ओ मेरे बचपन
सुन तो ज़रा
मुझे जीना सिखा देना
मुझे खुल के जीना है
इस खुले आंगन में
इस खुले पंछियों से
ख़ूब बातें करना है।
मेरी ज़िन्दगी के सफ़र
को नमकीन बना देना
मेरी दिल की बेचैनी को
संदूक में दफ़न कर देना
सुन रे बचपन
जैसा तू बेपरवाह
जीता है ना
मुझे बस कुछ
पल और उड़ने देना
बचपन की परियों
से पंख उधार ले आना
मुझे उड़ने देना
बचपन जीने देना।
खिलवाड़ मत सीखना
बस बचपन में जीने देना
बस बचपन ना खोने पाएं
बाबूं वाली बातों
वो रानी बेटी वाली बातें
गुड्डा गुड़िया की सौगातें
मुझे फिर से जीने देना
बस हाथों को पकड़े
माँ की उंगली थामे
सारा जहान धुमाना।
अरे ओ बचपन
सुन तो ज़रा
मुझे जीने देना
बचपन की गलियों
में फिर से साइकिल
की रेस लगाने देना
बचपन मुझे जीने देना
बस बचपन को
कहीं ना खोने देना।