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Sandeep Sabharwal

Children

4  

Sandeep Sabharwal

Children

बचपन की नादानियां

बचपन की नादानियां

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ये जो बचपन के खेल थे 

इक दूसरे के साथ रहने के मेल थे

कभी किलकारियां मारते हुए गली से गुजरना 

कभी गिरकर रोना तो कभी उठकर हंसना 

बारिश के पानी में छलांगें लगाना

कभी पानी में मेंढक बन जाना

कभी बैलगाड़ी तो कभी रेल बन जाना

कभी छूk छूk करके आना तो कभी पों पों करके हॉर्न बजाना

कभी सड़कों पर दौड़ते हुए पतंग उड़ाना

फिर पतंग कट जाने पर उसके पीछे भागना 

वो माँ के हाथ से नहाना 

रोते हुए माँ के हाथों से काजल लगवाना 

वो दादा के कंधों पर बैठ पूरा गांव घुमाना

वो दादी का मेरे माथे को चूमना

पापा का वो खाने के लिए चीजें लाना

पापा को वो मेले में सहर करवाना

पता नहीं कब ये बचपन कि नादानियां गुजर गई ।।

                         


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