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PRATAP CHAUHAN

Abstract Tragedy Inspirational

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PRATAP CHAUHAN

Abstract Tragedy Inspirational

बाबरी बूँद

बाबरी बूँद

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रे ! बाबरी बूँद, अब कहाँ सो रही है ?

हर आँख रो रही है, बृज की जमी तप रही है।।

बेमौसम जब तू आयी थी।

किसान की जमीन पर तबाही मचाई थी।।

यहाँ पर क्या थी कमी ।

अन्नदाता को लूटने वालों की।।

तू भी बन गयी थी लुटेरी।

किस्मत ही लूट ली तूने कर्म वालों की।।


आके जमीं की तपिस को बुझा दे।

तेरे बिना अब जमीं तप रही है।।

अब आके रसा पै खुद को लुटा दे।

तेरे बिना बागों की छाँव छुप गयी है।।


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