औरत और समाज
औरत और समाज
जहरीले हैं,नाग घूमते,
भेष बदल इंसानों का।
डसी जा रहीं रोज बेटियाँ,
बढ़े दंश हैवानो का।।
छोटे कपड़ों मे ना होती,
बद्नीयति में होती खोट।
तार तार होती मानवता,
अन्तर्दिल है लगती चोट।।
माँ,बहनों की इज्जत हरकर ,
बनते इजजतदार है वे,।
चेहरे पे चेहरे है रखते,
खूनी और गद्दार है ये।।
निर्भया और मनीषा जैसी,
रोज छली जाती बेटी।
औरत को बदनाम है करते,
कालिख ना दिल की मेटी ।।
फिर बैठे धृतराष्ट्र हैं अन्धे,
सुनते नहीं है चीख पुकार।
शर्मसार है करते माँ को,
बन्द ना होते बलात्कार।
औरत से ही जन्में,फिर भी,
औरत का अपमान करें।
फिर कैसे हम भारत माँ के,
बेटों का सम्मान करे ।।