"अश्रु की भाषा कोई ना समझे"
"अश्रु की भाषा कोई ना समझे"
प्रस्तुत है एक स्त्री की पीड़ा, तन्हाई और अंतहीन संघर्ष को दर्शाती एक लंबी, भावनात्मक ग़ज़ल — जैसे हर शेर उसके जीवन की परछाईं हो। स्त्री समान्य रूप से हर परिस्थिति में अपने आप को समायोजित करना अच्छी तरह से जानती है, उसके इसी स्वभाव के चलते अक्सर वो खुद को अकेला ही पाती है और अपने इसी अथाह दर्द को वो अपने ही अंदर कहीं छूपा लेती है और झूठी मुस्कान के साथ जीती है पर कभी किसी को इस बात का जरा भी एहसास नहीं होने देती है।
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ग़ज़ल: "तन्हाइयों की आगोश"
(एक स्त्री की खामोश आहटें को समर्पित)
सोई नहीं रातों से, बस जागती रही,
ख़्वाबों में भी दर्द की बात कहती रही।
सन्नाटों से भी अब डर नहीं लगता उसे,
तन्हा सी रूह, तन्हा ही बहती रही।
दीवारों से कर ली उसने दोस्ती अब,
हर बात वो, चुपचाप सहती रही।
न शिकवा किया, न गिला किया किसी से
लबों से कुछ कह न पाई, आँखें ही बहती रही।
आस का दीप बुझा कब, ख़बर ही न हुई,
वो तो बस उम्मीदों में ही जलती रही।
दर्पण भी उसके ज़ख्मों से काँप उठा था,
चेहरे पे मुस्कानों पे मुस्कान वो बिखेरते रही।
कहने को तो सारे अपने थे ज़माने में,
पर हर एक मोड़ पर वो तन्हा ही रही।
रिश्तों की भीड़ में गुमनाम हो गई बेचारी,
अब अपने नाम से अजनबी सी लगने लगी।
मन के कोने में छुपा लिया हर दर्द को,
हँसती रही, मगर पल पल रोती रही।
सपनों की चादर में चुभते थे कांटे,
हर रात वो नींदों से लड़ती रही।
माथे की बिंदी भी पूछे अब सवाल,
'साज' में भी क्यों 'सिसकियाँ' बसरती रही?
साड़ी की सिलवटों में छिपा एक इतिहास,
हर मोड़ पे वो खुद से ही मिलती रही।
वो 'माँ' भी थी, 'बेटी' भी, 'पत्नी' भी बनी,
हर रूप में बस त्याग ही करती रही।
अपनों की नज़रों में 'कमज़ोर' बन गई,
हक़ की लड़ाई, चुपचाप हारती रही।
वो बोलती तो 'उपदेश' कह दिए जाते,
खामोश रही तो 'ग़लत' ठहराई गई।
उसकी हँसी भी जैसे इक मुखौटा थी,
भीतर से हर दिन वो बिखरती रही।
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मक़ता (अंतिम शेर):
‘जज़्बात’ पूछे कोई तो वो क्या कहे,
जिन्दगी से बस इक गुफ़्तगू करती रही।
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स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ"
विरमगांव, गुजरात।
