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Rinku Bajaj

Abstract

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Rinku Bajaj

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अशान्त मन और शान्त कलम

अशान्त मन और शान्त कलम

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कुछ दिनों से कलम मेरी शान्त है

और मन उतना ही अशान्त है

भारी से जज़्बात हो गए

अल्फाज़ न जाने कहाँ खो गये !


गिरते पड़ते बिखर गए सब

आड़े तिरछे बिगड़ गए सब

अशान्त मन की कोख में जैसे

तोड़ गए दम सारे अक्षर !


अशान्त मन और शान्त कलम

कैसा है ये अनोखा मिलन

शान्त मन और अशान्त कलम

है जीवन का इकलौता संगम !


अशान्त कलम कभी रुक न पाए

शान्त कलम कुछ कह न पाए

अशान्त मन मे कुछ न आये

शान्त मन मे कायनात समाए !


पर कम्पन मेरे हाथों की

अल्फ़ाज़ एक भी लिख न पाएं

सीने में है ग़ुबार भरा

पर पन्नों पे वो किर न पाए !


कैसे कलम अशान्त करूं मैं

मन को कैसे शान्त करूं मैं

कैसे बाँधूं इनका बंधन

कैसे होगा दोंनो का संगम !


मन अशांत कैसे चलेगा

शान्त कलम से क्या निकलेगा

होगा जब दोनों का संगम

रचना ये तब नई रचेगा !!


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