अपनी मिट्टी
अपनी मिट्टी
एक काफिला निकला था शहर से
नई मंज़िल की ओर जाने को
ख़ाली सी राहें और
वीराने से मंज़र आंखों में
चलते चलते राहों पर
कितने ही मुसाफिर रूबरू हुए
सफर जिनका है शुरू हुआ
खत्म कहां होगा मालूम नहीं
भूखे प्यासे बच्चे थे घरों में
पर मोहल्ला तो अपना था
मिल बांट के रोटी मिल जाती थी
पर लोग तो सारे अपने थे
शानो शौकत की दुनियां है यहां
पर मिट्टी तो वो अपनी थी।