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Arti pandey Gyan Pragya

Abstract

5.0  

Arti pandey Gyan Pragya

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अपने दिन

अपने दिन

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वो बचपन कितना भोला उसमें निश्छलता थी ,

बड़ो का अनुशासन आदर कितनी निर्मलता थी।


घर में बच्चों की गिनती होती एक दो छुट भी जाते थे

एक आम में छोटा हिस्सा पाकर झुम जाते थे।


सुरज के आने से पहले हम जग जाते थे,

नीम के दातून से दाँतों को चमकाते थे।


गुण की चाय से दिन की शुरुआत होती थी,

स्कूल के समय पच्चीस पैसे मिलेगें इसकी आस होती थी।


पच्चीस पैसे में इतने अमीर हो जाते थे,

स्वयं रामलड्डू खाते दोस्तों को भी खिलाते थे।


स्कूल में गृहकार्य का दबाव नही मिलता था,

घर आते ही बस्ता कही और,

मित्रों का साथ मिलता था।


एक ही चुल्हे पर सबका भोजन बनता था,

सबसे पहले मेरी थाली एसा मन करता था।


अपनी थाली के भोजन को स्वादिष्ट बताते थे,

सारे बच्चों में सबसे ज्यादा इतराते थे।


कितनी निश्चितता थी पुरी रात सपनों में रहते थे,

मन के बडे़ अमीर थे सब बांट दिया करते थे।


आज की भागदौड़ की जिन्दगी में हम कहाँ खड़े है,

बचपन सुहाना सपना था अब हम बड़े हो गये हैं।


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