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अमित प्रेमशंकर

Abstract

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अमित प्रेमशंकर

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अपना अपना करता है मन

अपना अपना करता है मन

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अपना अपना करता है मन

कुछ नहीं है अपना रे।

धन दौलत और गाड़ी बंगला

ये सब है एक सपना रे।


समझ रहा तू अपना जिसको

होगा कभी ना अपना रे।

हो जाए ग़र तेरा तो फिर

आकर मुझसे कहना रे।


दो ग़ज कफ़न, दो बांस की डंडी

कुछ दुर तक हीं अपना रे।

दुश्मन तो दुश्मन हीं ठहरे

अपने हुए ना अपना रे।


पिता, पुत्र हो भाई बंधू

कोई नहीं है अपना रे।

छोड़ तुझे वो निर्जन थल में

लौटेंगे वो दफ़ना रे


कहे अमित की कलम हमेशा

राम नाम बस अपना रे।

अपना अपना करता है मन

कुछ नहीं है अपना रे।


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