अपदस्थ देवी
अपदस्थ देवी
सुनो !
मैं देवी नहीं,
मात्र
एक नारी होना चाहती हूँ।
पीढ़ियों से पड़ी
पाँवों की बेड़ियों से
मुक्ति चाहती हूँ।
कर्तव्यों के बोझ को
तुम्हारे संग
बाँटना चाहती हूँ।
मैं नित नये प्रतिमान
गढ़ना चाहती हूँ।
उड़ना, थिरकना
गिरना, सम्भलना
हँसना, बिलखना
चाहती हूँ।
हाँ....मैं देवी नहीं,
मात्र एक नारी
होना चाहती हूँ।
त्याग, बलिदान
प्रेम, दया की प्रतिमा
मात्र मैं ही क्यूँ ?
सम्मान, संस्कार
परिवार, समाज का भार
मेरे ऊपर ही क्यूँ ?
कुढ़न, घुटन
वेदना, मजबूरियाँ
सिर्फ़ मेरे हिस्से ही क्यूँ ?
युग बदला,
समय के साथ
सब कुछ बदल रहा है.....
तो सुनो है पुरुष !
अब देव बनने की
तुम्हारी बारी है
अपनी स्वच्छंदता पर
लगाम लगाओ,
संयम, अनुशासन
करुणा का कुछ सबक
तुम भी सीखो।
भाई, पति,
मित्र, प्रेमी और साथ ही
सम्पूर्ण पुरुष होने का मर्म,
तुम भी समझो।
अब तुम्हें भी पूजनीय होकर
खाली पड़ी वेदियों पर
स्थापित होना होगा।
क्योंकि, देवियाँ,
अब मंदिरों से
अपदस्थ हो चुकी हैं।
ये पद रिक्त है
सिर्फ़ और सिर्फ़
अब तुम्हारे लिये
हे देव !
अब बारी
तुम्हारी है।
