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AJAY AMITABH SUMAN

Abstract

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AJAY AMITABH SUMAN

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अंतर्द्वंद्व

अंतर्द्वंद्व

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जीवन यापन के लिए बहुधा व्यक्ति को वो सब कुछ करना पड़ता है, जिसे उसकी आत्मा सही नहीं समझती, सही नहीं मानती। फिर भी भौतिक प्रगति की दौड़ में स्वयं के विरुद्ध अनैतिक कार्य करते हुए आर्थिक प्रगति प्राप्त करने हेतु अनेक प्रयत्न करता है और भौतिक समृद्धि प्राप्त भी कर लेता है, परन्तु उसकी आत्मा अशांत हो जाती है। इसका परिणाम स्वयं का स्वयं से विरोध, निज से निज का द्वंद्व। विरोध यदि बाहर से हो तो व्यक्ति लड़ भी ले, परन्तु व्यक्ति का सामना उसकी आत्मा और अंतर्मन से हो तो कैसे शांति स्थापित हो ? मानव के मन और चेतना के अंतर्विरोध को रेखांकित करती हुई रचना ।  


दृढ़ निश्चयी अनिरुद्ध अड़ा है ना कोई विरुद्ध खड़ा है।   

जग की नज़रों में काबिल पर चेतन अंतर रुद्ध डरा है।

घन तम गहन नियुद्ध पड़ा है चित्त किंचित अवरुद्ध बड़ा है।

अभिलाषा के श्यामल बादल काटे क्या अनुरुद्ध पड़ा है।

स्वयं जाल ही निर्मित करता और स्वयं ही क्रुद्ध खड़ा है।

अजब द्वंद्व है दुविधा तेरी मन चितवन निरुद्ध बड़ा है।

तबतक जबतक दौड़ लगाते जबतक मन सन्निरुद्ध पड़ा है।

 किस कीमत पे जग हासिल है चेतन मन अबुद्ध अधरा है। 

अरि दल होता किंचित हरते निज निज से उपरुद्ध अड़ा है।

किस शिकार का भक्षण श्रेयकर तू तुझसे प्रतिरुद्ध पड़ा है।

निज निश्चय पर संशय अतिशय मन से मन संरुद्ध लड़ा है।

मन चेतन संयोजन क्या जब खुद से तेरा युद्ध पड़ा है।



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