अंत
अंत
ईंट पर ईंट चढ़ जाती है।
उसपर मिट्टी का थर चढ़ जाता है।
चार दिवारें बन जाती है।
और इंसान उसमें रह जाता है।
मुंह छुपाते हुए दर दर भटकते है
इंसान चार दिवारी में रह जाता है।
गरीब इंसान फुटपाथ पर रहता है।
फिर भी जिंदा रहता है।
हर इंसान ज़िंदा रहता है लेकिन,
अमीरों का ठाट और उसका नशा
उसपर चढ़ता गया और
इंसान रहता चला गया।
किसी ने नहीं सोचा कि
सही इंसान कैसा होना चाहिए,
पर वो ज़िंदगी जीता चला गया।
फुटपाथों पर रहने वाले,
ज़िंदगी जीतें हैं, अपनें ढ़ंग से
और महलों में रहने वाला भी,
जिंदगी जीता है, लेकिन कैसे?
दोनों के जीने का तरीका अलग होता है।
महलों में रहने वाला इंसान
बचें हुए अन्न को कुढें में फेंक देता है
और गरीब इंसान एक रोटी के लिए
दर दर यहां वहां भटकता रहता है।
पता नहीं, पता नहीं भगवान ने,
क्यों ऐसी विसंगति की?
एक को ढ़ेरों सारा सुख दिया और
दुसरी ओर एक को दुःख दिया।
क्यूं किया ऐसा भगवान ने?
इसका जवाब आज तक
कोई ढुंढ नहीं पाया
बस, एक सवाल बनके रह गया।
इंसान तो इंसान होता है
फिर ये अमीर, गरीब
ऐसा भेदभाव भगवान ने क्यूं किया?
गरीब इंसान थंड में सिकुड़ता रह जाता है।
फिर भी वो ज़िंदा रहता है।
किसने पाप किया और किसने पुण्य
ए तो कोई नहीं जानता,
किसके पास है इसका जवाब?
तुम? मैं या, मैं और तुम
इसका जवाब किसी के पास नहीं
आगे चलकर कैसा होगा इंसान
ये तो किसी को नहीं पता।
पर इंसान में बदलाव होना जरूरी है।
कौन राजा और कौन रंक,
सब जन एक ही रास्ते से जाने वाले है।
फिर क्यूं हर किसी को इतनी घमंड है?
सब जिंदगी जिते रहते है,
कोई सुखी तो कोई दुःखी;
पर अंत तो एक जैसा ही होता है।
जाते समय कोई, सोने की तिरडी
पर सवार होकर नहीं जाता
कोई कपड़ा ओढ़कर आता है,
तो कोई फटे कपड़े में आता है।
लेकिन आता तो वो स्मशान में।
हर किसी का जाने का मार्ग एक ही होता है।
मरने के बाद, सब जलकर धुआं होता है
और फिर उसकी अस्थी और
मिट्टी रह जाती है।
फिर कौन पहचानेगा उस राख को
कौनसे जात की है,
अमीर की है या गरीब की।
रह जाती है सिर्फ राख
और यही सब का अंत है।
