अनकही
अनकही
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कुछ बैचेन सी ,कुछ थकी सी
रहती हूं हर पल,लम्हे जैसै रूक से गए
मेरी आंखे न जाने क्या ढूंढ रही
हर वक्त इक खौफ सा लग रहा
इतनी जिंदगी कभी बेजान सी ना लगी कभी,
सब कुछ है या सब कुछ नहीं
पल पल होती बोरियत सी जिंदगी
तमाम उलझनो से घिरी रहती
कब,कहां और कैसे,हर अच्छे ।पल
छीनती जिंदगी,मासूम बच्चे इतने बेबस,
जैसे कतर लिए हम इनके पंख,छीन ली इनकी आजादी
मन में रहती ,हमेशा ऐसी कचोट।
काश!दूर कर सकूं हर उलझनें
हंसी लौटा दूं ,फिर हर चेहरे.की
उम्र की इस ढलान में
क्या इतनी शक्ति रहेगी तन में.
जोश में ला दूं सारा संसार।