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Rajni Sharma

Abstract

3  

Rajni Sharma

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अंजान सफर

अंजान सफर

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कभी तुम रहे 

अंजान सफर में मेरे 

कभी मैं अनबुझी 

पहेली बन गई।

जैसे कागज की कश्ती 

बिन पतवार 

बारिश के पानी में 

अपने रास्ते पर बह चली।

सोचा था कुछ यूँ 

कि तुम्हें मुकम्मल 

रिश्ते की पेहचान बना 

पेशानी पर सजाऊंगी।

पर धर्म की दीवार ने 

ये सच होने न दिया 

सपने के पंख को 

इस समाज ने काट दिया।

जाने क्यों दुनिया 

आज भी, मेरी अधूरी है 

टूटे हुए महल की ईंटें ही 

इस बेजुबान की,

अब सखी-सहेली हैं।


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