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shraddha shrivastava

Abstract

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shraddha shrivastava

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अल्हड़ सी अलबेली सी

अल्हड़ सी अलबेली सी

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अल्हड़ सी अलबेली सी ज़िन्दगी

मुझको लगती एक पहेली सी,

दूर से देखती हूँ में जब तो ये चमकती नज़र आती है,

और पास जो जाऊँ में इसके ये गायब सी हो जाती है !


दिन का ताना अलग ही है इसका,

और रात की है अलग जुबानी,

दिन में जितना ये शोर करे

रात को उतनी ही लम्बी सी खामोशी !


अल्हड़ सी अलबेली सी ज़िन्दगी

मुझको लगती एक पहेली सी

नयाब सा तोफा हो जैसे कोई ऐसे मिलती

क़भी क़भी,क़भी अजनबी सी बन जाती,

तो कभी मेरी ही जुड़वा हो जैसे ऐसी नज़र आती !


अल्हड़ सी अलबेली सी ज़िन्दगी

मुझको लगती एक पहेली सी

रोज़ सीखता ये वक़्त काटा कितना

कुछ क़भी घड़ी है रुक जाती,

मग़र ये ज़िन्दगी कहाँ रुकने पाती !

अल्हड़ सी अलबेली सी ज़िन्दगी।


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