अल्हड़ बेटी, आदर्श बहू
अल्हड़ बेटी, आदर्श बहू
मेरे हर सपने को तवज्जो मिली
रसोई की पहुँच से भी दूर रखा
साल में एक बार चाय बनायी
उसे भी सबने चुस्कियाँ मार के पिली
वो मुझसे भी होनहार और
कहीं ज्यादा काबिल थी
पर उसके हाथों को कलम की सौगात नहीं
चूल्हे चौकों की आँच मिली
मैं अल्हड़ बेटी और
वो आदर्श बहू है इस घर की
नन्ही सी जान और फूल सी बच्ची कहकर
काम नहीं सिर्फ आराम दिया सबने
वो मेरी ही उमर में हर जिम्मेदारी
बखूबी निभाया करती है
नहीं समझ सकती मैं
जिम्मेदारियों के बोझ कभी
ख्वाहिशें बयाँ करते ही हर सुख
सिरहाने पे पाया करती हूँ , क्यूँकि
मैं अल्हड़ बेटी और वो
आदर्श बहू है इस घर की।
देर रात घूमना, जींस टॉप पहनना,
जो चाहूँ वो करना
मेरे लिए तो हर बात में हामी भर दी
पर वो कौन थी
जिसे बिना घूंघट के, घर की दहलीज़
लांघने में भी मनाही थी
मैं सोनचिरैय्या और वो सोने के पिंजरे में
कैद चिरैय्या थी इस आंगन की
मैं अल्हड़ बेटी और
वो आदर्श बहू है इस घर की।
सुबह की पहली किरण
कभी देखी ही नहीं
बिना एक कप चाय
और ढेर सारी दुलार के
आँख कभी खुली ही नहीं
वाकई वाकई तेरा कोई
मुकाबला नहीं मुझसे
तूने ते सूरज को भी मात दे दी
बेटी से बहू की पदवी पाते ही सच में
मैं अल्हड़ बेटी और तू
आदर्श बहू है इस घर की।
फरमाइश करते ही हर
ख्वाहिश को पूरा कर दिया
ज़िंदगी दी और जीने का सलीका भी दिया
यही तो परिभाषा है परिवार की
जितनी लाडली मैं हूँ अपने घर में,
उतनी ही अज़ीज़
तो वो भी होगी अपने माँ बाप की
जिगर के टुकड़े को नाज़ों से पालना और
पराये को सौंपना इतना आसान नहीं
आखिर इतना परायापन किसलिए ? क्यूँकि
मैं अल्हड़ बेटी और वो आदर्श बहू है इस घर की ?