अधूरी स्वतंत्रता
अधूरी स्वतंत्रता
शोषण ,भूख ,गरीबी, लाचारी
बढ़ती अराजकता खोती आजादी !
परतंत्रता के भस्मासुर से हाथ
बढ़े किंकर्तव्यविमूढ़ता के साथ ।।
स्वतंत्रता ठिठकती ,
सकुचाती ,घबराती ।
दुविधाओं की धूमिल ,
आकाश में छुप जाती ।।
मनहूसियत मुख खोले,
वीरानी फैलाती ।
स्वतंत्र होने की,
अभिव्यक्ति को झुठलाती ।।
कानून की पट्टी ,
सारा सच को मूँदे ।
अंधविश्वास जड़ों में घुसकर ,
रूढ़ियों को बस चूमें ।।
मृत्यु का मजहब नहीं ,
रक्त केवल सुर्ख यहीं ।
फिर भी इंसानियत कैद,
और साँसे घुटती रही ।
घृणा, द्वेष की वादियाँ ,
बुझाती आत्मा की बत्तियाँ ।
सूरज का चेतना गुल, बढ़ाता,
तिमिर, तम, की गहराइयाँ ।।
सुलगते ,जलते प्रश्न ,
बुद्धि ,तर्क ,ज्ञान ध्वस्त।
परतंत्र मन का दर्प,
अभिमान रहता मस्त।।
आजादी का सतरंगी सपना,
केवल कुछ का ही है अपना ।
गुलामी की जंजीरों की जकड़न ,
लोकतंत्र में भी तानाशाही शोषण ।।
आजाद हुए ! पर क्या आबाद हुए?
तरक्की कहते ! कैसे बदहाल हुए !
क्यों पसरता शोक और मातम ?
चुटकियाँ लेते गरीब कंधों पर हम !
कब सही मायने में ,
स्वतंत्रता आएगी ?
परतंत्रता के तम को ,
मिटाकर दीप जलाएगी।।
मृग- मरीचिका सी यह स्वतंत्रता ,
आजाद ,स्वच्छंद हो जाएगी ?
सच्ची आजादी की खुशियाँ,
सुख -चैन आनंद बरसा जाएगी ।।