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विकास उपमन्यु

Abstract Inspirational

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विकास उपमन्यु

Abstract Inspirational

अभागन

अभागन

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मैं कैसे मानूँ कि वो निर्लज्ज है?

कैसे मानूँ एक अभागन है?

है यह सब दृष्टिकोण हमारे,

मैंने भी झाँका जब घर हमारे,

देखकर माँ को नीरस निकले मेरे।

वो बेलती है भूख बेलन से

सिर्फ और सिर्फ लिए हमारे।

मैं कैसे मानूँ कि वो निर्लज्ज है?

कैसे मानूँ एक अभागन है?

 

अब देखा मैंने बहन के मुख-मंडल को,

भर आया मन देख उसके बलिदानी मन को,

जिसके बिना न होता खुशनुमा बचपन मेरा,

जिसने सिखाया गिर कर चलना, उठना,

याद आता है आज भी मुझ को

वो तेरा अल्लहड़-अपनापन।

मैं कैसे मानूँ कि वो निर्लज्ज है?

कैसे मानूँ एक अभागन है?

 

अब देखा मैंने बेटी का प्रफुल्लित चेहरा,

जिसने डाल रखा है मेरे मन-प्रसंग पहरा,

कच्ची मिट्टी सी होती है ये बेटियाँ,

देख कर बाबुल की ख़ुशियाँ

ढूँढ लेती उसमे अपना सवेरा।

कैसे कहूँ कैसी होती हैं ये बेटियाँ?

मैं कैसे मानूँ कि वो निर्लज्ज है?

कैसे मानूँ एक अभागन है?


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