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SARVESH KUMAR MARUT

Abstract

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SARVESH KUMAR MARUT

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अब काँटा बन चुका शरीर

अब काँटा बन चुका शरीर

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क्षीण तन मन दुर्बल,

अब काँटा बन चुका शरीर।

चली जा रही हो वह ऐसे,

चली हों लहरें जिसके तीर।

पग-पग पर करहाती ऐसे,

छत्ते बिन मधुमक्खी जैसे।

डगर छोटी चलती जा रही,

जैसे चला हो पहली बार बलवीर।

पथ-पथ पर वह देखे ऐसे,

बिन मछली वक हुआ अधीर।

हाथ फैलाए वह चली जा रही,

जैसे खड़ा हो मृत्य शरीर।

हुआ प्रतीत तो होंठ हिले थे,

पर दिया नहीं उन्होंने कुछ भी।

क्या करती बस बढ़ती ही चली?,

चली नदी हो जैसे सागर के नीर।

पैरों में यह जख़्म ये ऐसा,

जैसे गड्ढों की तस्वीर।

चली जा रही-चली जा रही,

पर आँखों में थे उसके नीर।

क्षीण तन मन दुर्बल,

अब काँटा बन चुका शरीर ।

चली जा रही हो वह ऐसे,

चली हों लहरें जिसके तीर।

तन पर पट फटे पड़ें हैं,

जैसे पतझड़ की तासीर।

हाथ उठाए जैसे उसने,

पर महाशय बोले दे मुझको ढील।

उसके साथ एक छोटा बालक,

खिंचता जा रहा पकड़े उसकी उँगली।

वह तो अम्मा-अम्मा बोलता जा रहा,

लग रहा था मानो टेढ़ी लकीर।

एक हाथ से माँ की पकड़ी उँगली,

तथा दूसरा हाथ था उसका प्रकीर्ण।

लोगो ने तभी देखा उधर से,

और कर ली आँखें बड़ी-बड़ी।

वह बोला बाबू दे दो कुछ,

वे बोले चल आगे बढ़ ले।

अब क्या करते बह बढ़ते ही चले?,

और कहा रहो जीते प्यारे वीर।

उसने मन में इतना सोचा,

कुछ लोगों ने चोला पहना हमारे जैसा ही।

इसकी खातिर लोगों ने हमें,

झूठा समझ लिया पहले से ही।

पर मिला अब नहीं-मिला अब नहीं,

चाहें हम चले जाएँ लाखों मील।

पर तन में इतनी क्षमता ही नहीं,

और पैर पड़े हैं बिल्कुल चीर।

क्षीण तन मन दुर्बल,

अब काँटा बन चुका शरीर।

चली जा रही-चली जा रही,

पड़ चुकी हैं जिनकी साँसें क्षीण।


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