"आरंभ"
"आरंभ"
तुम्हारी समा की शमा में समाया है हर शाम हर जन की,
औलाद हो इस मां की, जवान हो, फौलाद हुए इस मिट्टी की।
हो पीर पर्वत से खड़े, संप्रति नहीं , प्रतिक्षण, सदा ध्यान की,
कौतूहल लगे हर साँस को, कहीं कोई आहट ना हो अराति की।
तुम्हारी सारंग, मिलकर उसकी शारंग से बात करे सारंग की ,
नफरत की देखो नजाकत, सीखो, पौ कहा तक हैं इस बैर की।
हो अलबेला, मस्ताने, आरक्षी, चल उठ बन हमराही इस इला की।
कृशानु बन हर पग पर, डकार, चिंघाड़, दूजी चीत्कार ना हों बैरी की।
तुम्हारी तपिश में इतनी तपीस हो, तपती रहे प्रतिपल शत्रु की,
रगों में बहता खून हैं, तेरी रग रग बनी रहे इस भारत भूमि की,
हो नस नस प्रेम राग स्रोतस्विनी, अमित्र उद्वेग ना हों इंतहा की।
रख तेज प्रकाश चेष्टा ऐसी ,रूह भी शून्य-कायल हो जाए अरि की।