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Pragya Dugar

Abstract Tragedy

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Pragya Dugar

Abstract Tragedy

आखिर ये डर क्यों ?

आखिर ये डर क्यों ?

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एक अकेली रात में,

खुद ही खुद के साथ में,

चल रही थी वो अकेली,

अपने शहर की राहों में 


खुशी थी चेहरे पे उसके,

दिल में एक आराम था,

चल रही थी जहाँ पर वो,

रास्ता सुनसान था 


आगे बढ़ते बढ़ते उसने,

कुछ कदमों की आहट सुनी,

जैसे जैसे आहात बढ़ी,

चेहरे की उसके रंगत उड़ी


पता भी नहीं चला उसे,

कब पैरों क रफ़्तार बढ़ी,

देखना चाहती थी कौन है,

पर जाने किस डर से न मुड़ी 


पीछे थी आहट जो,

कुछ और वो तेज़ हुई,

कोई अचानक सामने आया,

उसने बस अपनी चीख ही सुनी 


डरते डरते आँख खोली तो,

देखा वो उसकी सहेली है,

सुबह-शाम, दिन-रात,

जिसके संग पूरा बचपन खेली है 


दोस्ती बोली उसकी, यार

ये तो अपना ही शहर है,

बचपन बिताया है जहाँ,

कुछ दूर ही तो तेरा घर है,


बेपाक मस्तियाँ की जहां पर,

वहां गयी तो सिहर क्यों,

अरे डर गयी तो इस तरह से,

अपने शहर में ही ये डर क्यों?


उसने भी खुद से पूछा,

कुछ गलत न हो जाये,

कोई पास ना आ जाये,

मन में ये सब फिक्र क्यों,

ये देश मेरा भी तो है,

फिर अकेले चलने में,

आखिर ये डर क्यों ?


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