आखिर क्यों ?
आखिर क्यों ?
कोई इंसान भले कहता हो
वो आम ही रहना चाहता है
लेकिन उसकी खामोश हरकतों में
दिखता है कि कितनी गहरी चाह है
उसे उसकी अपनी एक बुलंद पहचान की।
हालांकि कोई बुराई नही इसमें
लेकिन ये पहचान जब अजीब सी चितकबरी
रंगत में दिखने लगती है,
जब अनायास ही सामने से झलकने लगती है
बेईमानी की परछाई हर ओर
उस 'पहचान'को पाने की
जद्दोजहद में,
मन जो प्रत्यक्ष देखता है सब कुछ
उबकाई लेने लगता है
प्रतिमान आदर्श का भरभरा के टूटने लगता है।
फिर दुबारा स्वीकारा नहीं जाता
उस आडंबर को जो
चमकता है दुनिया की नजरों के सामने।
प्रश्न उठता है मन में
इस नाम और शोहरत से
कौन, कहाँ, किसे ठग रहा है ?
कोई किस झूठे अभिमान को पोषित कर रहा है ?
और आखिर क्यों कर रहा है ?