आखिर कब तक ?
आखिर कब तक ?
"सहम गई हूं मैं, थम गई हूं मैं
देख शैतानों की हैवानियत डर गई हूं मैं।
आखिर यह चलेगा कब तक,
बहुत सहन कर चुके अब तक!!!!!
कब मैं देख पाऊंगी सुनहरी सुबह
कब मैं अपने ही घर में रहूंगी महफूज
अपने ही उपवन में गुलाब की जगह
कांटे दिखते हैं,
दिल पसीजता है जब मासूमों के
टुकड़े यूं पड़े दिखते हैं।
सोचती हूं उस सुबह कि जब मैं खुलकर बेखौफ
यूं इतरा कर चल सकूं उन सुनसान सड़कों पर
जहां रोज पड़े रहते हैं चिथड़े सताई हुई
बेबस और लाचार बेटियों के।
जब मां से बेटी ने पूछा यह जुल्म हजार
क्यों आते हैं झोली में औरतों के बार-बार
मां करना चाहती थी व्यक्त अपने विचार पर
नहीं बाहर ला पाई दिल का गुब्बार।
दोबारा बेटी के पूछने पर मां सहम गई
उसके मस्तिष्क पर सिलवटें उभर गई
मां ने हंसी ठिठोली में बात टाली और
बिना जवाब दिए ही यह घड़ी निकाली।
लेकिन मां सो नहीं पाई पूरी रात
अपने बचपन की उसे याद आई एक बात
जो सवाल समस्या थे मां के बचपन में
वही आज उभरे हैं बेटी के दर्पण में।
फिर मां एक गहरी सोच में पड़ गई
आज भी औरतों की वही स्थिति देखकर बिखर गई"
आखिर कब तक इस प्रश्न का जवाब दे पाएंगे हम????
आखिर कब तक इस समस्या का हल निकाल पाएंगे हम????
