आकाश
आकाश
दबी हुई इक इच्छा मन में, हरदम है रहती।
मैं आकाश कभी पंछी बन, पंख लगा उड़ती।।
बचपन से ही सुनती आई, तुम हो इक लड़की।
सहना होगा तुमको हरदम, बातें तो सबकी।।
मात-पिता की इच्छा पूरी, हर पल ही करती।
मैं आकाश कभी पंछी बन, पंख लगा उड़ती।।(१)
ब्याह हुआ जब तो नव गृह ही, मेरा कब बनता।
उसे सजाने में दिन रैना, बीता अब करता।।
कभी कष्ट मिलते जो मुझको, हंँस-हँस कर सहती।
मैं आकाश कभी पंछी बन, पंख खोल उड़ती।।(२)
बंद पिंजरे में रहकर भी, नील गगन तकती।
कभी अगर जो मैं उड़ पाऊँ, कुछ भी कर सकती।
सपने देखे थे जो मैंने, पूर्ण सभी करती।
मैं आकाश कभी पंछी बन, पंख लगा उड़ती।।(३)