आजकल कुछ पत्थर से हो गए हम
आजकल कुछ पत्थर से हो गए हम
आजकल कुछ पत्थर हो गए हम,
ना खुशी, खुश करती है,
ना ग़म आँखें नम करता है,
हम सब अपनी ही दुनिया में गुम,
ग़म देकर औरों को खुशियाँ माँगते हम,
आजकल कुछ पत्थर से हो गए हम l
ना किसी की चीख कानों में पड़ती है,
ना किसी का रुदन दिखाई देता है,
अपने ही रंजो -ग़म में डूबे हम,
अपने ही घमंड में टूटे हम,
आजकल कुछ पत्थर से हो गए हम l
किसी को रौंदकर भी, आह नहीं,
किसी को तोड़कर भी, उफ़ नहीं,
जो खुद टूटे तो फिर, क्यों हैं बिखरे हम?
जो खुद ही ना संभले, तो किस बात का ग़म?
आजकल कुछ पत्थर से हो गए हम l
थोड़ा - सा जो दिल जिंदा बचा है,
ना उसका भी गला घोटें हम,
कम से कम उसे तो पाषाण होने से रोके हम,
सोचें - क्यों आजकल कुछ पत्थर से हो गए हम?
