आज की रियासत
आज की रियासत
हवेली के बंद दरवाज़े, वो मैले से गलीचे की धूल..
रोशनदान से हल्की आती रोशनी,वो बड़ा मकड़ी जाल
करता है बयां जैसे सदियों से बदहाली के हाल,
झरोखे जैसे सुना रहे हैं पुश्तों की उजड़ी दस्ताने
वो जहां शाही महफिलों का था काफिला सा
आज एक एक बूंद को तरसते हैं वो मयखाने,
जहां पायल की झनकार से गूंजते थे गलियारे,
हंसी ठिठोली की रौनक फूटती हर आंगन द्वारे
आज हर अपने को तलाशते हैं सूने, बेदर्द,बेचारे,
कौन ले इनकी सुध, कौन संवारे ये रियासतें
ख़ुदी के हालातों से जूझ रही ये आज की नस्ल
पल पल चुका रही है जीने के लिऐ लगातार किश्तें
महल,हवेली तो दूर, इन्हें हर दिन की परवाह करनी है
ये आज की कौम है प्यारे...
रोटी और छत के लिए इसकी मशक्कत हर वक्त जारी है।