आज की दयनीय परिस्थिति।
आज की दयनीय परिस्थिति।
आज का विषय अत्यंत गंभीर, विचारणीय और समसामयिक है क्योंकि आज की जो परिस्थितियां बनती जा हैं वो हमारे समाज को और हमें आपस में तोड़ने का प्रयत्न कर रहा हैं ना की जोड़ने का।
कविता की रूपरेखा का वर्णन
(लेखक की भाषा में)
विषयवस्तु का चयन:
यह कविता एक गहरी सामाजिक पीड़ा और चिंता से जन्मी है — आधुनिक भारतीय नागरिक की मानसिकता, जो मूर्खता, भेदभाव, घृणा और ईर्ष्या जैसे नकारात्मक गुणों से ग्रस्त होती जा रही है। इस प्रवृत्ति के चलते राष्ट्र की आत्मा आहत हो रही है, और भविष्य में भारत के विभाजन जैसी स्थिति की आशंका भी उभरने लगती है। कविता इन्हीं चिंताओं को लेकर रची गई है।
उद्देश्य:
इस रचना का मूल उद्देश्य पाठकों को जागृत करना है — चेतना की उस गहराई को स्पर्श कराना हैं जहाँ एक सामान्य नागरिक स्वयं से प्रश्न करे, अपने व्यवहार को टटोल सके, और समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाने का संकल्प ले। यह कविता न केवल दोषों को उजागर करती है, बल्कि समाधान की राह भी दिखाती है।
भावात्मक स्वर:
कविता का भाव अत्यंत द्रवित, आत्मा-स्पर्शी और चेतनात्मक है। इसमें आक्रोश नहीं, बल्कि पीड़ा है — उस राष्ट्रभक्त की पीड़ा, जो अपने घर को बिखरते हुए देख रहा है। कहीं करुणा है, कहीं चिंता, और अंततः आशा की एक उजली किरण।
संरचना:
कविता को तीन प्रमुख भागों में बँटी है:
प्रारंभिक चित्रण: भारत के गौरवशाली अतीत का स्मरण, जहाँ एकता, विविधता और सह-अस्तित्व मूल पहचान थे।
मध्य भाग: वर्तमान की भयावह सच्चाई — सामाजिक विषमता, संकीर्णता और टूटते मूल्यों की विवेचना।
अंतिम भाग: समाधान और आह्वान — चेतना की ओर वापसी, प्रेम, विवेक और कर्तव्य की पुनर्स्थापना।
प्रतीकात्मकता और शैली:
कविता में दीपक, दीवार, बीज, और मिट्टी जैसे प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, जो अत्यंत प्रभावशाली हैं। भाषा सरल, लेकिन गहन है; शैली संवादात्मक है — जैसे कवि सीधे पाठक से बात कर रहा हो, उसकी आँखों में झाँक रहा हो।
संदेश:
कविता का संदेश स्पष्ट और मजबूत है —
"अगर हम अपने भीतर के अंधकार को नहीं मिटाएँगे, तो ये राष्ट्र उजाला नहीं देख पाएगा।"
हमारा भारत एक विचार है, एक भावना है — उसे बाँटने का अधिकार किसी को नहीं, और उसे बचाने का कर्तव्य हर एक भारतीय को है।
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"टुकड़े मत करो इस मिट्टी के"
वो भारत,
जिसने ऋषियों की तपोभूमि में शांति सीखी,
जिसने बौद्ध और वेदांत में सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ा,
जिसने विवेकानंद की आवाज़ में जागरण और गांधी की नफरत से मुक्ति पाई,
आज उसी भारत की आत्मा घायल है।
कभी राम और रहीम की गलियाँ एक साथ गूंजती थीं,
आज वहीं नामों पर दीवारें खड़ी हो रही हैं।
कभी मंदिर की घंटी और मस्जिद की अज़ान साथ बजती थीं,
आज कान इन्हें भी बाँटने लगे हैं।
मूर्खता ने विवेक का गला घोंट दिया है।
लोग तर्क से नहीं, ट्रेंड से सोचते हैं।
भीड़ जहाँ जाती है,
वहाँ सच्चाई नहीं, शोर अधिक होता है।
भेदभाव ने मन को गंदा कर दिया है।
जाति, धर्म, भाषा और रंग की दीवारें
इतनी ऊँची हो चुकी हैं कि
मानवता अब दिखाई नहीं देती।
घृणा, सबसे तेज़ी से फैलती महामारी है।
यह दिल को जला देती है,
संवेदनाओं को राख कर देती है।
और ईर्ष्या —
वो तो आत्मा का ज़हर है,
जो अपने ही देशवासी की सफलता को दुःखद बना देती है।
हम, भारतीय नागरिक — आज,
अपने ही घर में आग लगा रहे हैं।
सोचिए, अगर हर कोई सिर्फ अपने स्वार्थ में डूबा रहा,
तो क्या ये राष्ट्र बचेगा?
या हम इतिहास के उस मोड़ पर पहुँच जाएँगे
जहाँ नक्शे में भारत नहीं, केवल 'खंडों' की कहानियाँ बचेंगी?
क्या हम वही गलती दोहराएँगे
जो कभी 1947 ने हमें सिखाई थी?
क्या हम फिर भूलेंगे कि विभाजन से रक्त बहता है, संस्कार नहीं उगते?
लेकिन —
अभी भी देर नहीं हुई है।
एकता की लौ बुझी नहीं है,
कुछ हाथ अभी भी दीपक थामे खड़े हैं।
कुछ लोग अभी भी
'तू मेरा है' कहने की हिम्मत रखते हैं।
हमें वही बनना है — वो दीपक।
हमें विवेक से सोचनेवाले नागरिक बनना है।
हमें धर्म को नहीं, धर्म की आत्मा को अपनाना है।
हमें ज़हर नहीं, संवाद बोना है।
हमें जाति नहीं, कर्तव्य पहचानना है।
क्योंकि भारत —
मिट्टी का टुकड़ा नहीं,
ये हर एक भारतीय के भीतर बसी एक भावना है।
तो आओ,
इस मिट्टी को फिर से सींचें —
प्रेम से, समता से, समझदारी से।
क्योंकि अगर भारत टूटेगा —
तो हम सब हार जाएँगे,
बिखर जाएंगे।।
और अगर देश ("भारत") जागेगा —
तो हम सब जीतेंगे। यही सच्चाई है।
जागो भारतीयों जागो
यही हैं भारत मां की पुकार।।
जय हिन्द जय भारत
वंदेमातरम।।
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ"
विरमगांव, गुजरात।
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