आधुनिकता के रंग
आधुनिकता के रंग
इंसान बदल रहा है, समाज बदल रहा है...
कहने को तो धरती, आकाश बदल रहा है....
पहले की खूशबू, ना मिट्टी से आए..
पहले सी बारिश ना, तन मन को भिगाए.....
क्या इस आधुनिकता में, प्रकृति भी डगमगाये.....
ये वहम है मेरे मन का, या सच में ऐसा हो रहा है....
कहने को तो धरती, आकाश बदल रहा है.....
इंसानों ने खूब, कर ली तरक्की....
मुंह फुलाकर बैठी है, आटे की चक्की....
दिमाग भी अपना, सुन्न बैठा हुआ है....
उस बेचारे का काम, तो कंप्यूटर कर रहा है...
कहने को तो धरती, आकाश बदल रहा है...
गलियों की धूल भी, अब ठंडी पड़ी है...
उन बचपन के खेलों पे, मंदी पड़ी है....
अब बच्चों का बचपन, मोबाइलों में कट रहा है....
कहने को तो धरती, आकाश बदल रहा है....
अपनी ही शादी में, खुद दुल्हन नाच रही है
शर्माना लजाना छोड़, स्टेज पर कहकहे लगा रही है...
दुल्हा घुटनों पर बैठा, विल यू मैरी मी बोले....
दादा, पिता बढ़ाए, हौंसला उसका आगे पीछे डोलें...
दुल्हन के हामी भरते ही, दुल्हा लगाए गले से...
जन समुदाय पीटे ताली, देखकर ये निर्लज्ज तमाशे..
सच में इंसान आधुनिकता के, हाथों पिस रहा है...
कहने को तो धरती, आकाश बदल रहा है...
