आड़ी तिरछी रेखायें
आड़ी तिरछी रेखायें
सुनो,
ये जो कैनवास पर,
तुम्हें आड़ी तिरछी
रेखाएं दिखती है ना,
इनका अपना ही,
अस्तित्व है, वज़ूद है,
ना इनका कोई और,
रंग हो सकता है,
या रूप ही,
ये जैसी है,
बस वैसी है,
लालिमा कभी
कालिमा नहीं
हो सकती,
हरियाली
नीलिमा का,
स्थान नहीं ले सकती
सब जैसे समाहित हैं
एक उद्देश्य से
एक निहित कारण से
स्वतः
स्वाभाविक रूप में,
ये आड़ी- तिरछी रेखाएं,
की भी अपनी ही
स्वाभाविकता है,
कोई छोटी
तो कोई बड़ी,
कोई गिरती
कोई उठती
कुछ गूढ़ तो
कुछ प्रत्यक्ष
सब जैसे
अभिव्यक्ति
हो एक भाव की
स्पष्ट और प्रामाणिक,
श्वेत कैनवास पर
उभरे ये रंग,
एक विशिष्ट आकार में,
स्वयं को अंकित करके,
जैसे प्रश्न कर रहे हो,
दर्शक की शून्यता से,
और उत्तर की अपेक्षा नहीं,
अपितु जैसे कह रहे हों,
बस इतना ही समझे तुम,
एक ध्वनिहीन अट्टहास !
एक चित्रकार की,
मात्र कल्पना नहीं,
पर यथार्थ में,
असंख्य संवेदनाओं की,
परिभाषा है यह,
अनकहे रिश्तों की
अनामिका, अपरिचिता,
अभिनायिका,
कुछ जानी-पहचानी सी,
कुछ अंजान अनुभूति लिए,
एकाएक नहीं सृजित ये कृति,
मगर समय के काल-चक्र की,
धूरी रही होगी या परिधि,
अभिव्यक्ति का
शंखनाद है या,
अंतर्मुखी अंतर्नाद,
एक विशेष क्षण का,
चित्रण है यह,
इसे समझने की चेष्टा व्यर्थ है,
भाव की गहराईयों में छुपा अर्थ है,
सुनो
ये जो कैनवास
पर विभिन्न रंगों की
आड़ी-तिरछी रेखाएं हैं
इनका अपना अस्तित्व है,
इनका अपना ही वज़ूद है।
