ज़ख़्म
ज़ख़्म
" मारपीट के ज़ख़्म तो दिख जाते हैं! तभी तो उनके लिए मरहम भी उपलब्ध है; पर दिल पर दिए ज़ख़्म किसी को नहीं दिखते। और ज़ख़्म एक औरत के दिल पर हों तो बिल्कुल ही किसी को कोई सरोकार नहीं; ये दुनिया तो औरत के मारपीट से पड़े ज़ख्मों को भी अनदेखा कर देती है, फिर दिल के ज़ख्मों का तो ज़िक्र भी उसके लिए जरूरी नहीं।" - सुधा ने अपनी बेटी सोहा से कहा।
सोहा की शादी के लिए उसकी बुआ जी ने अपने किसी दूर के रिश्तेदार का रिश्ता बताया है।
सोहा के पिता; रोशन जी चाहते है कि रिश्ता तय हो जाए तो लड़की की किस्मत संवर जाए।
अकेला लड़का है। ज़मीन जायदाद भी खूब है।
सोहा के पिता जी सिर्फ पैसे की चकाचौंध को देख रहे थे, और वही सपने बेटी को भी दिखाए !
रशन जी -" बेटा। पैसा आज के वक्त में हर मर्ज की दवा है। जिसके पास पैसा है हर खुशी उसके पास चली आती है।"
सोहा भी पिताजी की बातों से सहमत थी।
सोहा अभी कॉलेज के द्वितीय वर्ष में पढ़ रही थी, ये उम्र सपनों और खुले आसमान में पंछी सा उड़ने की ही होती है।
इस उम्र में उसने अपने मनपसंद की चीजे खरीदने, दोस्तों के साथ घूमने ;इनके अलावा दुनिया का कोई रूप देखा ही नहीं था।
सोहा को लगता था कि उसकी मां दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत है क्योंकि उसके पिताजी ने कभी किसी चीज की कमी नहीं रखी।
मां को सोहा ने हमेशा मुस्कुराते ही देखा।
जैसे जैसे रिश्ते की बात आगे बढ़ रही थी सुधा जी खुद को असहज महसूस कर रही थी।
उनकी आंखों के सामने पुरानी बातें बिल्कुल चलचित्र की तरह चल रही थी।
सुधा जी की शादी भी इन्हीं रंगीन और सुहाने सपनों की बातों से तय हुई थी।
सुधा जी अपने कॉलेज के एक दोस्त को बहुत पसंद करती थी।
पर सुधा के पिताजी ने कहा -" तुम जिस शान शौकत से रही हो। तुम्हे कुछ भी नहीं मिलेगा इस रिश्ते में। रोज पिता के दरवाज़े ही जब मांगने आओगी तो क्या फायदा ऐसे रिश्ते का। तुम्हारी शादी मेरी पसंद के लड़के से ही होगी।"
सुधा जी के लिए उनके पिता जी की बात मानना उनकी मजबूरी था और इस तरह सुधा जी की शादी रौधन जी से हो है गई।
शादी के कुछ दिन सब सही चला।
जब सुधा जी ने नौकरी करने की इच्छा जाहिर की तो रोशन जी ने ये कहकर मना कर दिया कि मेरे घर में पैसे की कोई कमी नहीं। घर रहो। अपनी गृहस्थी पर ध्यान दो।
सुधा के सपने अब आसमान से उतरकर ; घर में बिछे आलीशान गलीचे पर बिखरे पड़े थे।
जब जब उसे अपनी इच्छा और सपने टूटते दिखते उसे एहसास होता कि पिताजी की बात मानकर मैंने ना सिर्फ अपने प्यार को खोया बल्कि अपनी खुद की पहचान, सपने, दिल, एहसास, आत्म सम्मान सब कुछ ही खो दिया।
सुधा की बेटी के साथ भी अब यही होने जा रहा था ; सुधा इसी उधेड़ बुन में थी।
इतने में सोहा ने कहा -" मां। आजकल आप इतनी परेशान क्यूं रहते हो।"
सुधा जी -" बेटा। मै चाहती हूं तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो। अभी तुममें दुनिया की समझ नहीं अभी बच्ची हो! पापा के आंगन के बाहर की दुनिया बड़ी ही रंग बदलने वाली है।तुम समझो मेरी बात।
सोहा ने मां का हाथ पकड़कर कहा -" मां । पापा ने बोल दिया है कि मेरी पढ़ाई के बाद ही शादी होगी अभी सिर्फ सगाई ही होगी।"
सुधा ने बेटी के भोलेपन को निहारते हुए उसके चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहा -" मेरी बच्ची। सिर्फ कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने से तुम नई ज़िंदगी शुरू करने के लिए तैयार नहीं हो जाओगी! अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ। दुनिया के लोगों से मिलेगी तो दुनिया की समझ भी आयेगी।"
रोशन जी बाहर खड़े होकर मां बेटी के बीच की बात सुन रहे थे अचानक अंदर आए ; क्या हो रहा है ये।
उनकी आवाज़ सुनकर मां बेटी दोनों ही हैरान सी रह गई।
आज सोहा ने अपने पिता जी की आंखों को इतना लाल और उनके चेहरे के इस रंग को पहली बार ध्यान से देखा था।
रोशन जी -" सोहा बेटा । तुम अन्दर जाओ ; पढ़ाई करो! मुझे आपकी मां से कुछ बात करनी है!"
आज सोहा हमेशा की तरह पिता जी की बात मानकर चली नहीं गई बल्कि बाहर ही खड़ी हो गई।
रोशन जी ने सुधा का हाथ कोहनी से पकड़ते हुए कहा -" तुम अब तक अपना राग लेकर बैठी हो। तुम्हें किस चीज की कमी रखी है मैंने जो मेरी बेटी को उल्टी सीधी पट्टी पढ़ा रही हो।"
सुधा ने अपना हाथ छुड़वाते हुए रोशन जी की आंखों में आंखें डालते हुए कहा -"आइंदा इस लहजे में मुझसे बात मत करना। पहले बात मेरे सपनों और मेरी ज़िन्दगी की थी जो मै चुप रही। अब बात मेरी बेटी की ज़िन्दगी की है।"
रोशन जी ने सुधा की आंखों में विद्रोह सी ज्वाला देखी।
आज सुधा की आवाज़ का ताप भी रोशन जी को चुभ रहा था।
रोशन जी ने कहा -" तुम्हारी ज़िन्दगी में किस चीज की कमी है। अपनी बेटी का दुश्मन नहीं हूं मै। मेरी बेटी है वो। शान से उसकी शादी करूंगा। उसे दो पैसों के लिए इधर उधर नौकरी करने की जरूरत नहीं है।"
सुधा जी -" नौकरी सिर्फ पैसों के लिए नहीं की जाती। और बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो पैसों से खरीदकर आप नहीं दे सकते अपनी बेटी को।"
रोशन जी ने दांत भींचते हुए कहा -" ऐसी कौनसी चीज है जो पैसे से नहीं मिलती; आजकल तो लोग तक बिक जाते हैं चीजों की क्या औकात।"
सुधा जी को पता चल गया था कि सोहा बाहर ही है इसलिए आवाज़ को तेज करते हुए कहा -" आत्मसम्मान, पहचान, सपने ,एक सच्चा साथी। खरीद पाएंगे आप; अपनी बेटी के लिए??"
रोशन जी ने कहा -"पैसे के बिना सच्चा साथी भी कितने दिन साथ रहेगा। सारी उम्र नौकरी करते पिसते रहते हैं लोग और फिर दूसरों के शान शौकत देख खुद की किस्मत को कोसते है।"
सुधा जी ने कहा -" सारी उम्र एक दूसरे का हाथ बटाने से अच्छा बुरा वक्त बीत सकता है। पर कोई एक पैसे की चादर में ढका रहे और दूसरा सिर्फ घुटता रहे तो वो रिश्ता मजबूरियों से ही निभता है; दिल से नहीं।"
रोशन जी ने कहा -" तो तुम अब तक घुट रही हो क्या।"
सुधा जी -" घुट नहीं रही तो जी भी नहीं रही।"
रोशन जी को सुधा की आंखों में एक ज्वाला सी दिख रही थी। इसलिए बिना कुछ कहे ही चले गए बाहर।
बाहर निकलते हुए देखा सोहा दरवाज़े पर ही सब सुन रही थी।
बिना कुछ कहे ही चले गए।
सोहा अंदर आईं तो देखा मां आज तक सिर्फ खुश रहने का नाटक ही करती रहीं।
मां का दुख तो कभी पूछा ही नहीं किसी ने।
सोहा मां के गले लग गई।
सुधा जी ने कहा -" बेटा। दुनिया में सबसे मुश्किल है किसी को खोना। खोने के बाद ही किसी चीज की अहमियत पता चलती है। मैंने अपने पिता जी की बातों में आकर बहुत कुछ खोया। अब तुम्हे नहीं खोने दूंगी।"
सोहा -"मां तुमने क्या खोया। सब तो है हमारे घर।"
सुधा जी -" सब है बेटा। बस मैं नहीं हूं। तुम्हारी मां है तुम्हारे पिता की पत्नी है, इस घर की बहू है पर सुधा कहीं नहीं है।
खुद को खोने का ज़ख़्म कभी भरता नहीं और अगर खुद को खोने के अलावा, किसी के सपने,पहचान,प्यार सब खो जाए तो फिर वो कैसे जीता होगा इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं!"
सोहा ने मां से कहा -" ठीक है मां। जैसा आप चाहें। पहले मैं अपनी पहचान बनाऊंगी उसके बाद ही आगे की ज़िन्दगी के बातें में सोचूंगी!"
*दोस्तों। किसी चीज को खोकर ही उसकी अहमियत पता चलती है। खोई हुई चीजों के बदले तो दूसरी चीजें मिल भी जाती हैं पर किसी ने खुद को ही खो दिया है तो फिर ढूंढना मुश्किल है। इसलिए अपने आपको खोने ना दें।