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हिम स्पर्श - 42

हिम स्पर्श - 42

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एक दिवस और व्यतीत हो गया। चित्रकारी में अपनी-अपनी प्रगति पर वफ़ाई तथा जीत संतुष्ट थे। एक दूसरे की सहायता से, एक दूसरे के सानिध्य से चित्रकारी की नयी-नयी रीति सीख रहे थे। कल से पवन भिन्न भाव से बह रहा था। प्रत्येक क्षण में जीवन, आनंद तथा सुख भरा था। आशा एवं उमंग से भरपूर था। वैसे कोई विशेष कारण नहीं था, किन्तु दोनों प्रसन्न थे। 

दोनों ने नींबू रस लिया, जो भिन्न रूप से मीठा था।

नींबू रस एक कड़ी थी दोनों के बीच बिना शब्द कहे अपने मन के भावों को व्यक्त करने का।

शब्द?

दोनों के बीच शब्द का अस्तित्व नहींवत हो गया। शब्दों की उन्हें आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने नयी भाषा सीख ली थी। आँखों की भाषा, भावों की भाषा, मौन की भाषा। सभी बातें पूर्ण रूप से तथा उचित अर्थ में कही जा रही थी, समझी जा रही थी, बिना शब्द के।

“हमें शब्दों की आवश्यकता क्यों होती है?” जीत की आँख ने पूछा।

“शब्द संवाद का आधार है। एक बार तुम संवाद का भिन्न मार्ग जान लेते हो तो शब्द को कहीं पीछे छोड़ देते हो। हम संवाद के भिन्न रूप का प्रयोग कर रहे हैं। अत: हमें शब्दों की आवश्यकता नहीं है।“ वफ़ाई के मौन अधरों ने उत्तर दे दिया। नींबू रस पूरा करके दोनों अपने-अपने चित्र में जुट गए। मरुभूमि में चित्रकारी ही एक मात्र कार्य था दोनों के लिए। वफ़ाई ने अनेक नए चित्र रच दिये थे। तितलियों के, जंगल के, नदी के, मार्ग के, भवनों के, नगर के, गाँव के भी। वफ़ाई चित्राधार से कुछ कदम पीछे हट गई। अपने ही सर्जन को एक-एक करके देखने लगी 'मेरा मन जिस-जिस की कल्पना कर सकता था वह सब मैं चित्रित कर चुकी हूँ। एक-एक कर के उसे देख लूँ।'

वह देखती रही। मन में चल रहे विचारों को पढ़ने लगी। कला की दृष्टि से तो एक भी चित्र सम्पूर्ण नहीं है। सभी में कोई न कोई क्षति है, अपूर्णता है। हम पूर्णता का आग्रह क्यों रखते हैं? इसे अपूर्ण ही रहने दो। इसकी अपूर्णता को स्वीकार करो। इसे ऐसे ही रहने दो। ओ मेरे चित्र, मैं तुम्हारी अपूर्णता को स्वीकार करती हूँ। तुम अधूरे ही मधुरे हो। मैं तुम्हें सम्पूर्ण बनाने का प्रयास नहीं करूँगी।

आगे क्या चित्रित करोगी? 

मुझे मत पूछो। यदि तुम पूछना ही चाहती हो तो उससे पूछो।

उससे? क्यों ?

इस प्रश्न का उत्तर तुम जानती हो।

चुप कर, नटखट लड़की। अब कभी ऐसा कहा तो डांटुंगी, समझी?

वफ़ाई का अन्तर्मन हँसते-हँसते हवा में विलीन हो गया। वफ़ाई ने उसे पकड़ना चाहा, किन्तु वह हाथ से छूट गया।

वफ़ाई अनिर्णीत रही, जीत से पूछ बैठी, ”जीत, इन चित्रों को देखो। मैंने अनेक वस्तु चित्रित कर ली है। मैं कुछ नया करना चाहती हूँ। मैं कौन-सा चित्र रचूँ? मैं निर्णय नहीं कर सकी, तुम मेरी सहायता कर दो।“

जीत ने अपने अधरों पर उंगली रखते हुए कहा, "श... श... श...। कुछ भी कहो नहीं। मौन सुन लेगा।" जीत हँस पड़ा, वफ़ाई भी। मौन भाग गया।

“मेरा मार्गदर्शन करो।“ वफ़ाई ने नीले रंग का एक बिन्दु अपनी दांयी हथेली में डाल दिया। गुलाबी हथेली नीली हो गई। रंग हथेली में फ़ेल गया और हाथों की रेखाओं में बस गया। वफ़ाई की भाग्य रेखाएँ नीली हो गई।

जीत ने वफ़ाई की हथेली को देखा। हथेली का नीला रंग आँखों के मार्ग से जीत के हृदय में उतर आया। हृदय में उसके नीला गगन उग आया। एक नीली नदी प्रकट हो गई जो नसों में बहकर सारे शरीर में व्याप्त हो गई। जीत नीले रंग में रंग गया। 

वफ़ाई ने देखा कि जीत की आँखें नीली हो गई है। उन आँखों में नीला सागर गरज रहा है। वह उस सागर में छोटी-सी नाव में बैठकर, अपने हाथों में पतवार लिए यात्रा कर रही है। वह पतवार को सागर की लहरों में चला रही है। वह दूर-दूर जा रही है। अत्यंत दूर, स्वयं से भी क्या मैं इस नीले सागर में डूब रही हूँ? यह सागर मुझे आकर्षित क्यों कर रहा है? क्या वह मुझे किसी दूसरे किनारे ले जाएगा अथवा स्वयं में डुबो देगा? वह दूसरा तट कहाँ है? कैसा है? मैं उस अज्ञात तट पर क्यों जाना चाहती हूँ? मेरा भाग्य क्या है? 

वफ़ाई ने हथेली की रेखाओं को देखा, वह नीली ही थी। मैं कुछ निर्णय क्यों नहीं कर पाती हूँ? प्रथम प्रश्न था कि कौन-सा चित्र रचूँ और अब प्रश्न है कि मेरा भाग्य क्या है? बातें सदैव अनिर्णीत क्यों रहती है?

कुछ आशा में वफ़ाई ने जीत की तरफ देखा। वह अभी भी वफ़ाई की हथेली की नीली रेखाओं में खोया हुआ था।

“जीत, मेरी तरफ देखो। मैंने तुम्हें कुछ पूछा था। और तुमने उसका उत्तर नहीं दिया।“

“तुम्हारा प्रश्न क्या था? एक बार कह सकोगी?”

“अब मैं किस का चित्र रचूँ?” इस बार जीत ने उसके शब्द सुने।

जीत केनवास के समीप गया, कुछ आकृतियाँ खींची और रंग भरने लगा। वफ़ाई और केनवास के बीच में जीत के होने के कारण वफ़ाई को दिखाई नहीं दे रहा था कि जीत क्या चित्र बना रहा है। वफ़ाई प्रतीक्षा करने लगी।

कुछ क्षण में जीत ने चित्र पूर्ण किया। वफ़ाई की तरफ घूमा और उसे समीप बुलाया।

केनवास पर दो चित्र थे।

प्रथम चित्र में खुले हुए दो अधर थे जो कुछ कहने जा रहे थे। उस चित्र पर चौकड़ी का निशान किया गया था।

“इसका अर्थ है कि मुझे मेरे अधर बंद रखने हैं और बात नहीं करनी है? तो मैं संवाद कैसे करूंगी? जीत, तुम मुझे बोलने से रोक रहे हो। बोलुंगी नहीं तो...।” वफ़ाई ने कहा। जीत ने उत्तर नहीं दिया।

वफ़ाई ने दूसरे चित्र को देखा। केनवास पर तूलिका, केनवास तथा विविध रंगों का चित्र था। उस पर सही का निशान था।

“तुम कहना क्या चाहते हो?”

जीत तो था मौन स्मित लिए खड़ा।

“जीत, तुम जब भी ऐसे स्मित करते हो अज्ञात लगते हो। मैं समझ नहीं पा रही हूँ तुम क्या कह रहे हो। पहेली मत रचो, जीत।“

जीत अभी भी मौन स्मित कर रहा था।

“श्रीमान चित्रकार, मैं तुम से पूछ रही हूँ। तुम सुन रहे हो? तुम हो कहाँ?” वफ़ाई चीख पड़ी। उसके शब्द शांत मरुभूमि में प्रतिघोष करने लगे। जीत ज़ोर से हँसने लगा। वफ़ाई दुविधा लिए देखती रही। 

“केनवास पर रचे दो चित्रों को देखो। वह कोई संदेश दे रहे हैं तुम्हें। इसे पढ़ो। इसे समझो,“ जीत ने उत्तर दिया।

वफ़ाई ने चित्रों को पुन: देखा, विचार किया और कहा, ”प्रथम चित्र कहता है कि अधर खोलो मत, बोलो मत। किन्तु दूसरा चित्र मुझे नहीं समझ आया।“

“प्रथम उत्तर सही है। दूसरा चित्र कह रहा है कि यदि तुम्हें कुछ कहना हो तो तूलिका लो, चित्र बनाओ और चित्र के द्वारा कहो। अपने संवाद को चित्र का रूप दो,“ जीत ने समझाया।

“अर्थात चित्रकारी की भाषा? अद्भुत। जो भी कहो चित्र में कहो, जो भी कहो रंगों में कहो।“ वफ़ाई के अधरों पर स्मित था, हाथ उठे हुए थे जैसे अल्लाह की बंदगी कर रही हो। उसने जीत की तरफ गरदन घुमाई। उसके मुख पर आनंद था, उमंग था। 

जीत वफ़ाई की उस अनुपम मुद्रा को देखता रहा। कुछ क्षण के लिए दोनों स्थिर हो गए। समय के उस पड़ाव का आनंद लेते रहे।

“वाह, सुंदर। जीत तुम अनुपम विचार ले आए हो। किन्तु इस भाषा के अक्षर को मैं नहीं जानती। इसका व्याकरण भी नहीं आता मुझे। इसके काल, क्रियापद, विशेषण, नाम, सर्वनाम, कुछ भी नहीं जानती। यह हमारे पाठ्यक्रम में नहीं था। ऐसी भाषा ना तो मैंने पढ़ी है ना सीखी है। इस भाषा पर कोई पुस्तक भी नहीं पढ़ा। तो मैं कैसे इस भाषा...?”

“वफ़ाई, तुम ठीक कहती हो। इस भाषा की कुछ समस्याएँ हैं, किन्तु समय रहते हम उसका हल ढूंढ लेंगे। हम अपने नियम बनाएँगे इस भाषा के। यह हमारा स्वातंत्र्य है, हमारा अधिकार है। हम अवश्य सफल होंगे।“

जीत उत्साह से भरा था। उसके मुख पर अनोखी आभा थी। वफ़ाई प्रसन्न हो गई।

“यह बात है, जीत। भाषा के क्षेत्र में हम नया अध्याय लिखेंगे। यह जगत एक दिवस नष्ट हो जाएगा, सैकड़ों वर्ष पश्चात कोई उत्खनन करेगा और खोज निकालेगा कि इस नगर में रंगों की भाषा का प्रयोग होता था। वह कहेगा कि जीत एवं वफ़ाई ने इस अनुपम भाषा का आविष्कार किया था। इस भाषा को क्या नाम देंगे? हम इस को ‘जीव’ नाम दे सकते हैं क्या?”

“जीव?”

“जीत का जी तथा वफ़ाई का व। अर्थात जीव।“

“पहले इसका विकास तो कर लो, वफ़ाई।“

वफ़ाई अपने प्रवाह में थी, ”किन्तु उसे कैसे ज्ञात होगा कि इस भाषा के सर्जक हम थे?”

“उस विश्व को संदेश देने के लिए हम एक और सर्जन कर लेंगे।“

“वह क्या है?”

“यह सब बातें किसी पत्थर पर शिलालेख के रूप में लिख देना। वह दूर वाले पत्थर पर इस भाषा के विषय में अँग्रेजी में लिख देना। बस वह इस भाषा को समझ लेंगे।“

“पत्थर पर क्यों? किसी कम्प्यूटर अथवा कागज पर क्यों नहीं?”

“क्यों कि जब भी हम उत्खनन करते हैं, हमें शिलालेख ही मिलते हैं जो उस युग की भाषा में लिखे होते हैं। ऐसा क्यों होता है, जानती हो?”

“उस समय कम्प्यूटर तथा कागज का आविष्कार नहीं हुआ था। किन्तु जीत, तुम तो किसी इतिहास के विद्वान जैसी बातें कर रहे हो। तुम इतिहास के विद्यार्थी हो क्या?”

“कागज का आविष्कार भी बाद में हुआ। अनेक कारणों में से एक यह कारण हो सकता है। किन्तु मूल कारण भिन्न है।“

“वह क्या है?”

“तुम्हारी जिज्ञासा इतिहास के विद्यार्थी जैसी है, वफ़ाई।“ जीत ने स्मित दिया, ”कागज एवं कम्प्यूटर नाशवंत है। समय के साथ वह नष्ट हो जाते हैं। किन्तु पत्थर, युगों तक किसी भी आक्रमण को झेल लेता है। वह युगों तक खड़ा रहता है। इस हेतु विशेष पत्थरों का प्रयोग होता है।“

वफ़ाई को जीत इतिहास के प्राध्यापक जैसा लगा। यह उसका नया रूप था।

“पत्रकार के रूप में इतिहास से थोड़ा कुछ संबंध तो है मेरा, किन्तु उसे कभी गंभीरता से नहीं लिया मैंने। विद्यार्थी काल में मैं इतिहास से घृणा करती थी। किन्तु, जीत, तुम जैसे मित्र यदि इतिहास की बात समझाता है तो इतिहास भी रसप्रद हो जाता है। सभी को जीत जैसा प्राध्यापक मिलना चाहिए।“ वफ़ाई हँसने लगी।

“वफ़ाई, इसमें हँसने जैसी क्या बात है?”

“गुरु जी...।” वफ़ाई हँसती रही।

“पहले हास्य का आनंद ले लो, वह पूर्ण हो जाय तब कुछ बोलना।“

वफ़ाई हँसती रही, कुछ समय तक।

“मनुष्य सदैव आनेवाली पीढ़ी को अथवा आने वाले युग को कुछ ना कुछ कहना चाहता है। पत्थर का शिलालेख इस हेतु उत्तम माध्यम है।“

“गुरु जीत जी, हमें भी इसी परंपरा को अनुसरना होगा।“ 

अब जीत का क्रम था हँसने का, वह हँसने लगा, ”हमें पत्थर पर शिलालेख लिखने की आवश्यकता नहीं है।“

“क्यों? क्या तुम हमारे इस आविष्कार के विषय में आने वाले युग के मानव को ….।”

“नहीं वफ़ाई। उत्खनन से मिली अनेक संस्कृति यह प्रकट कर चुकी है कि चित्र की भाषा युगों पहले भी थी। उत्खनन में इनके अनेक प्रमाण मिले हैं।“

“हे इतिहास के प्राध्यापक, हम भाषा की बात कर रहे थे और आपने उसे इतिहास में बदल दिया। गुरु जी, कृपया भाषा पर लौट आइये।“ वफ़ाई ने कहा, स्मित के साथ।

“प्रिय शिष्या, मैं उस पर ही आ रहा हूँ। मेरा कहना है कि हमने कोई नई भाषा का आविष्कार नहीं किया है, बल्कि हमने किसी का भी आविष्कार नहीं किया है। हम तो अस्तित्व में है उसका प्रयोग करने जा रहे हैं। मेरी धारणा है कि मैं भाषा की ही बात कर रहा हूँ, है ना मेरी प्रिय शिष्या?” जीत और वफ़ाई हँस पड़े।

“तो हम इस चित्र भाषा का ही प्रयोग करेंगे, ठीक है वफ़ाई?”

“ठीक है, जीत। किन्तु हमें प्रत्येक शब्द को चित्र से जोड़ना होगा, उस के अर्थ नक्की करने होंगे।“

जीत ने तथा वफ़ाई ने शब्दों को चित्रों के साथ जोड़ दिये। घंटों तक उस भाषा का अभ्यास करते रहे, सीखते रहे।

दोनों मौन के साम्राज्य में रहने लगे। शब्द, जिसे वह कदाचित ही प्रयोग करते थे, अपना अस्तित्व और महत्व खो बैठे।


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