हिम स्पर्श 63

हिम स्पर्श 63

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“उठो चलो, कहीं बाहर चलते है। कुछ अंतर साथ साथ चलते है” वफ़ाई ने कहा।


“इस मरुभूमि में कहाँ जाएँगे हम?”


“क्यों? मरुभूमि में नहीं चल सकते क्या? चलने के लिए रास्ता ही तो चाहिए”


“चरण भी तो चाहिए”


“चरण तो सब के पास होते है, उसे उठाने का साहस चाहिए श्रीमान”


“यह साहस कहाँ से आता है?”


“मैं तो चली, तुम आ जाओ मेरे पीछे पीछे” वफ़ाई चल पड़ी।


“अरे, रुको। मैं भी...” जीत पुकारता रहा, वफ़ाई चलती रही। जीत ने गति बढाई, वफ़ाई के साथ हो गया।


दोनों साथ साथ चलते रहे। मरुभूमि खाली थी, मौन थी। दोनों के चरणों की ध्वनि आती रही। मरुभूमि की हवा की कुछ कहती रही। मौन की ध्वनि भी सुनाने लगी। हवा में एक संगीत बह रहा था, वफ़ाई उसे सुनती रही तो जीत उस संगीत के संकेतों को पकड़ने का प्रयास करता रहा। दोनों लौट आए।


दूर सूरज अपने घर की तरफ चल पड़ा था। गगन अपना रंग बदल चुका था। वफ़ाई नींबू रस ले आई, ”लो इसे पी लो”


जीत ने रस लिया, वफ़ाई की आँखों में देखा। उन में भी जीत को एक रस दिखा, जीवन रस। एक संकेत दिखा, जीवन संकेत। जीत ने स्मित किया। वफ़ाई ने स्मित से जवाब दिया। वह हाथों में रस कटोरी लिए ढलते सूरज को देखने लगी। सूरज ढल जाए उस से पहले, सूरज के बिलकुल समीप दूज का चंद्र निकल आया था। वफ़ाई प्रसन्न हो गई।


“जीत, वह सूरज देख रहे हो?” वफ़ाई ने मौन तोड़ा।


“हाँ, थोड़ी ही देर में वह भी ढल जाएगा” जीत ने अधूरे मन से जवाब दिया।


“ढलना तो उसकी प्रकृति है। ढलेगा तब तो कल फिर उगेगा”


“पर आज तो वह ढल रहा है। उसे ढलने से कोई नहीं रोक सकता”


“किन्तु कल तो वह...”


“कल किसने देखा है? कल अज्ञात है, कल...” जीत ने बात अधूरी छोड़ दी।


“तुम हर बात पर निराश क्यों हो जाते हो? हर बात को तुम अपने साथ क्यों जोड़ देते हो?” वफ़ाई गुस्सा हो गई।


“क्यों की यही मेरा सत्य है”


“किन्तु इसी ढलते सूरज में कहीं कुछ उगने का संकेत है, कहीं जीवन भी है। बस दिखना चाहिए”


“मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा”


“वह दूर देखो, सूरज के निकट। एक पतली चमकती रेखा दिख रही है?” वफ़ाई ने अपने हाथ को चन्द्र की दिशा में खींचा।


“नहीं। मुझे तो कुछ भी नहीं दिखता”


“इधर आ जाओ”


जीत वफ़ाई के पास जा कर खड़ा हो गया। वफ़ाई ने फिर से चंद्र की तरफ निर्देश किया, हाथ खींचते हुए कहा,“ देखो, मेरे हाथ की दिशा में देखो। वहीं दूर एक छोटा सा दूज का चंद्र दिख रहा है ना?”


जीत वफ़ाई के खींचे हुए हाथ को देखने लगा। जीत की रुचि चंद्र से ज्यादा वफ़ाई के हाथ में थी। उस खींचे हुए हाथ में भी जीत को भरपूर जीवन दिखने लगा।


“दिखाई दिया?” वफ़ाई ने फिर से पूछा।


जीत ने अपना ध्यान वफ़ाई के हाथ पर से खींचे हुए हाथ की दिशा में घुमाया। दूर उसे दूज का चंद्र दिखाई दिया।


“हां, दिख रहा है। कितना छोटा सा है?”


“किन्तु सुंदर है। है ना?” वफ़ाई की बात में उत्साह था, उमंग था।


“जीत, तुम जानते हो? जब मैं छोटी थी तब मेरी माँ मुझे प्रत्येक महीने दूज का चंद्र अचूक दिखाती थी। मैं भी हर महीने उसे देखने को उत्सुक रहती थी। कारण जानते हो?” वफ़ाई ने मुख जीत की तरफ घूमाया।


उस मुख में भी जीत को जीवन संकेत दिखे।


“नहीं जनता। अभी कुछ ही दिन तो हुए है हमें मिले हुए और तुम अपने बचपन की बात मुझे पूछ रही हो। बावली हो तुम...” जीत ने उपहास किया।


“बात तो उचित है तुम्हारी। बावली तो मैं हूँ ही। नहीं तो इस मरुभूमि में एक अज्ञात युवक के साथ ऐसे इतने दिनों तक थोड़ी न रहती?” वफ़ाई हँस पड़ी। जीत भी।


“तुम ऐसे ही हँसते रहो, जीत। अच्छा लगता है” वफ़ाई और जीत फिर से हँसने लगे, मुक्त मन से।


“तुम अपने बचपन की कुछ बात कह रही थी” जीत ने याद दिलाया।


“दूज का चंद्र अमावस्या के बाद निकलता है। यह संकेत देता है कि अंधकार से भरी रात्रियाँ बीत चुकी है। दूसरी बात, दूज के चंद्र के बाद हर रात्रि चंद्र बढ़ता जाता है। अंधेरा घटता जाता है, प्रकाश बढ़ता जाता है। इसे शुभ माना जाता है”


“देखो बातों बातों में सूरज डूब गया, साथ में चंद्र भी। कितनी छोटी आयु होती है दूज के चंद्र की?”


“तुम फिर निराश हो गए? क्या हो गया है तुम्हें? तुम जीना नहीं चाहते?” वफ़ाई ने गुस्सा दिखाया।


“जीना तो प्रत्येक व्यक्ति चाहता है, मैं भी”


“तो चिंतित क्यों हो? जीवन की आशा को जीवंत रखो, सब कुछ ठीक हो जाएगा”


“जब जब जीवन की आशा जागती है, ज़िंदगी मुझे छल जाती है और मृत्यु के अधिक समीप लाकर खड़ी कर देती है। मैं डर सा गया हूँ”


“तुम ऐसा क्यों सोच रहे हो?”


“समय ने मुझसे मेरी दिलशाद छिन ली। गेलिना आंटी को भी छिन लिया। मुझे डर है कि कहीं तुम भी मुझे...”


वफ़ाई मौन रही।


“जीवन से मेरा विश्वास उठ गया है। मैं क्षण क्षण मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। किन्तु मृत्यु भी तो आती नहीं। मैं थक गया हूँ इस तरह प्रतीक्षा करते करते”


वफ़ाई अभी भी मौन थी। जीत भी मौन हो गया। उसे वफ़ाई के संग जीवन की कोई आश देखने की अपेक्षा थी, किन्तु वफ़ाई तो मौन थी। वफ़ाई ने कोई संकेत नहीं दिया। वह लौट गई कक्ष में। क्षितिज रात के अंधेरे से ग्रस्त हो गई । जीत विषाद ग्रस्त हो गया। मरुभूमि रात का मौन ओढ़े सो गई। वफ़ाई कक्ष में थी और जीत झूले पर। दोनों सोने का प्रयास कर रहे थे, पर कोई सो नहीं पाया। देर रात तक जब वफ़ाई को नींद नहीं आई तो वह कक्ष से बाहर निकली, दरवाजे पर खड़ी हो गई और जीत को देखने लगी।


जीत, झूले पर बैठा था। उसकी आँखें खुली मुख पर अभी भी पीड़ा है। संध्या के समय थी उससे भी अधिक पीड़ा है। कितना दुखी है यह? कितनी पीड़ा सह रहा है वह और में विवश हूँ। उसकी पीड़ा को जरा सा भी हर नहीं सकती। कितना कष्ट, कितना आघात झेला होगा उसने? समझ नहीं आ रहा है कि मैं करूँ तो भी क्या करूँ? वह क्षण क्षण मर रहा है। वह जीवन की इच्छा को खो चुका है। मैं विवश होकर देख रही हूँ। मैं कुछ नहीं कर सकती।


वफ़ाई सोचते सोचते जीत के पास आ गई। जीत अनभिज्ञ था। वफ़ाई ने चादर में छुपे जीत के मुख को ध्यान से देखा, वह चौंक पड़ी। जीत तेजी से सांस ले रहा था, हाँफ रहा था। वफ़ाई ने जीत के माथे पर हाथ फेरा, वह गरम था। तेज बुखार से जीत तप्त था।


“तेज बुखार है तुम्हें। चलो उठो और अंदर चलो। कुछ दवाई ले लो” वफ़ाई ने जीत को हाथ से पकड़ा और कक्ष के अंदर ले गई। वफ़ाई जीत के लिए दवाई ढूँढने लगी।


“जीत, कहाँ होगी दवा?” वफ़ाई ने पूछा।


“मुझे कोई दवा नहीं लेनी है। तुम उसे मत ढूंढो” जीत हाँफते हुए बोला। 


“तो तुम क्या चाहते हो? दवाई नहीं लोगे तो मर जाओगे। वेदना देखी है कभी अपनी?” वफ़ाई ने जीत को डांटा।


“मैं मरना नहीं चाहता, मैं जीना चाहता हूँ”


“तो क्या मैं तुम्हें मारना चाहती हूँ? जीने के लिए ही तो दवाई देना चाहती हूँ। तुम समझते क्यों नहीं हो?”


“नहीं, मेरा कहने का तात्पर्य वह नहीं था” जीत ने गहरी साँसे ली, “किन्तु मैं जानता हूँ कि मेरे पास समय बहुत ही अल्प है। अब इन दवाओं से कब तक जीता रहूँगा?”


जीत वफ़ाई की आँखों में देखने लगा। वफ़ाई शांत हो कर जीत को सुनती रही, देखती रही। जीत आगे न बोल सका, हाँफ गया। वफ़ाई उसके माथे पर हाथ फेरती रही। उसे अच्छा लगा।


“तुम तो बोलो न कुछ। मैं ही बोले जा रहा हूँ। तुम कुछ कर सकती हो?” जीत ने आशा भरी नजरों से वफ़ाई को देखा।


“मैं नहीं जानती, मैं क्या कर सकती हूँ। किन्तु तुम तो कर सकते हो। मरने से पहले जो चाहे, जैसा चाहे जी तो लो”


“वह कैसे?”


“जो भी मनसा हो, पूरी कर लो। क्या चाहते तो तुम इस बचे हुए समय में?”


जीत “क्या चाहता हूँ मैं? मुझे जब ज्ञात है कि मेरे पास समय नहीं है तो मैंने क्या किया? कुछ भी तो नहीं। बस केवल प्रतीक्षा ही करता रहा”


तुम चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे, इस समय में। अपने लिए तो जी ही सकते थे।


मैं क्या कर सकता था? मैं तो हार ही गया था ज़िंदगी से। अब तो विलंब हो गया है। अब भी कर लो जो चाहो। अब भी जी लो अपनी मर्जी से। कौन रोके रखा है?


पर मुझे ध्यान ही नहीं कि मैं क्या चाहता हूँ, मेरी इच्छा क्या है।


तुम चाहते थे झरनों के साथ बहना। उड़ते पंछियों को देखना। बरसती वर्षा की बूंदों को हथेलियों में लेकर उसे मुट्ठी में कैद करना, सागर की लहरों में भीगना और मैं आ गया इस मरुभूमि में।


मरुभूमि का भी अपना सौन्दर्य होता है। तूने उसका भी आनंद नहीं लिया। यहाँ की ऋतु भी लुभावनी होती है। किन्तु तुम तो बैठ गए अपने आप को इस घर के अंदर बंध कर के। तुम कैद हो गए हो अपने ही कारावास में। बस, मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे हो, जो तुम्हें भी पता नहीं कि कब आएगी? तुम कुछ नहीं कर सकते।


मैं कुछ करना चाहता हूँ। मैं इस मरुभूमि से भाग जाना चाहता हूँ।


कहाँ जाओगे?


उसी पहाड़ पर, जहां से यह पीड़ा मिली है। संभव है कि उसी पहाड़ के पास इस पीड़ा का उपचार हो। यदि उस पहाड़ के पास उपचार नहीं मिला तो दूसरे पहाड़ पर जाऊंगा। प्रत्येक पहाड़ पर जाऊंगा, दवा माँगऔर दवा नहीं मिली तो?


कोई बात नहीं। कुछ क्षण जी तो लूँगा, अपनी इच्छा से।


“कहाँ खो गए, चित्रकार? केनवास पर तो तुम अच्छा चित्र बना लेते हो किन्तु स्वयं की जिंदगी के चित्र को बनाने में विफल हो गए हो तुम” वफ़ाई ने जीत के मन में चिंगारी जलाने का यत्न किया।


“अब बस भी तो करो। और कितना टोकोगी?” जीत धुंधला गया।


“मैं क्यों टोकने लगी? अब कोई लाभ है क्या?” वफ़ाई ने आग में घी डाल दिया।


“है ना। मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं मेरे बचे हुए समय को अपनी इच्छा से जीऊंगा”


“वह कैसे?”


“मैं पहाड़ों पर जाना चाहता हूँ, ठीक उसी पहाड़ पर। बर्फ से घिरे पहाड़ पर, जिसने मुझे यह रोग दिया है। तुम मेरा साथ दोगी? हम कल ही चलते है”


“मैं ही क्यों?”


“क्यों कि तुम बर्फ सुंदरी हो। बर्फीले पहाड़ों से तुम्हारी पुरानी मित्रता है” जीत ने आशा भरी निगाहों से वफ़ाई को देखा।


“मैं नहीं आ सकती। मैं एक अभियान पर हूँ और जब तक मेरा कार्य पूर्ण नहीं हो जाता, मैं यहाँ से नहीं जाने वाली। हमारे विश्व में प्रतिबढ्धता का बड़ा ही महत्व होता है। और मैं मेरी प्रतिबद्धता पर अडग हूँ। यदि तुम जाना चाहो तो कल ही निकल जाओ, अकेले ही। मैं सब व्यवस्था कर दूँगी” वफ़ाई ने अपना निर्णय सुना दिया।


जीत पुन: निराश हो गया। जीवन की जितनी भी आशाएँ और संभावनाएं उसे संकेत दे रही थी वह सब उसे भ्रामक लगने लगी। वह टूट गया। झूले पर जा बैठा। वफ़ाई देर तक क्षितिज में देखती रही। दूर सुदूर रात यौवन पर आ गाइ। वह लौट गई अपने कक्ष में।


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