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Alka Srivastava

Tragedy

4.2  

Alka Srivastava

Tragedy

काश

काश

6 mins
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मुझे बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था, इसी शौक के चलते मैं पढ़ती गयी। एम.ए. बी.एड एम.एड करने के बाद सोचा कि कहीं पढ़ाई से नाता न छूट जाए तो टीचिंग लाइन में जाने का मन बना लिया। टीचिंग लाइन ऐसी है जहाँ हम रोज कुछ न कुछ पढ़ते हैं। बच्चों को पढ़ाते हैं उनको बहुत सारी चीजें सिखाते हैं और सबसे बड़ी बात बहुत सी चीजें हम बच्चों से सीखते रहते हैं।

मैंने कई स्कूलों में नौकरी के लिए आवेदन किया लेकिन कहीं बात नहीं बनी। शायद अच्छी नौकरियाँ किस्मत वालों को मिलती हैं। मैं पढ़ाई के लिए अपनी मेहनत पर भरोसा कर सकती थी लेकिन नौकरी के लिए तो मुझे किस्मत का ही सहारा था। हालाँकि मैं केवल किस्मत के सहारे ही नहीं बैठी थी साथ में अपनी तरफ से हर सम्भव कोशिश भी करती जा रही थी। जहाँ कहीं भी टीचिंग की जाॅब निकलती मैं फार्म जरूर भरती।

एक दिन मेरी कोशिश रंग लायी और किस्मत ने मेरे लिए दरवाजे खोल दिए। दरअसल पहली बार विशिष्ट बीटीसी की कई पोस्ट निकली। विशिष्ट बीटीसी मतलब जिन लोगों ने बीटीसी न करके बीएड या एलटी किया हो वे भी उस पोस्ट की पात्रता रखते हैं और बीटीसी वालों की तरह नौकरी के लिए आवेदन कर सकते हैं। बस फिर क्या था मैंने अपने सभी डाॅक्यूमेंट्स की फोटो काॅपी कराई और कर दिया आवेदन।

लेकिन सरकारी नौकरी के लिए कोई सुनवाई इतनी जल्दी थोड़े न होती है। 5-6 महीने बाद मैं भूल गयी कि मैंने विशिष्ट बीटीसी का फार्म भी भरा है।

उधर मेरी शादी के लिए रिश्ते आने लगे। लोगों के हिसाब से मैं बहुत पढ़ाई कर चुकी थी। और वैसे भी मेरी शादी करना मेरे मम्मी डैडी की जिम्मेदारी थी। उम्र भी हो ही चुकी थी शादी की, तो मैंने भी शादी के लिए हाँ कर दी। अच्छा पढ़ा लिखा खानदानी परिवार था। कुछ महीने बाद मैं अपनी ससुराल आ गयी।

मेरी एक नयी ज़िंदगी की शुरुआत हो चुकी थी। यहाँ का माहौल मायके से बिल्कुल अलग था। लेकिन मुझे खुद को इस नये माहौल में ढ़ालना था तो मैं जुट गयी एक आदर्श बहू और एक आदर्श पत्नी बनने के लिए। और इस कोशिश में मैं अपने सारे सपने पीछे छोड़ आयी। ज़िंदगी के इस नये सफर में बहुत कुछ था और जो नहीं था वह था मेरा अपना खुद का साथ। मैं खुद से और अपने सारे सपनों से दूर होती चली गयी।

फिर एक दिन किस्मत ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। मैंने दो साल पहले विशिष्ट बीटीसी का टीचिंग के लिए फार्म भरा था जिसे शादी के बाद मैंने लगभग भुला दिया था। मेरा काॅल लेटर आया था, मेरे डैडी मम्मी की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था। वे मेरे सपने को पूरा होते हुए देख रहे थे।

चूँकि फार्म मैंने शादी के पहले भरा था इसलिए काॅल लेटर मेरे मायके में आया था। डैडी उसे लेकर मेरी ससुराल आए। खुशी उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी।

ड्राइंग रूम में सभी लोग थे। मेरे डैडी, सासूमाँ, पापाजी, मैं और मेरे पति। सामने मेज पर मेरा काॅल लेटर पड़ा था। अजीब सी शान्ति थी वहाँ। डैडी मेरी तरफ देख रहे थे और मैं पापाजी की तरफ। पापाजी की आँखों में ऐसा कोई भाव नहीं था जिससे लगे कि उनको मेरी नौकरी लगने की खुशी हो। उनकी चुप्पी मेरे मन में उथल पुथल मचा रही थी। तभी उन्होंने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,

मैं बहू को नौकरी कराने के विरोध में नहीं हूँ। हमारी बड़ी बहू भी नौकरी करती है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि हमारी छोटी बहू घर में रहकर घर की जिम्मेदारी संभाले। इस बुढ़ापे में हम पति पत्नी इन जिम्मेदारियों से मुक्ति पाना चाहते हैं। डैडी बीच में टोकते हुए बोले,

"भाई साहब ! मेरी बेटी नौकरी के साथ घर की जिम्मेदारी अच्छी तरह निभा लेगी। आप उसे एक मौका तो दीजिए।"

पापाजी गंभीर आवाज में बोले,

"कैसे ? यही न बहू नौकरी करेगी तो दो चार नौकर रख लिए जाएंगे। यानि बहू होटल की तरह घर आयी खाना खाया और थककर सो गयी। और अगर नौकर नहीं रखा तो वह एक मशीन बन जाएगी। मैं इन दोनों स्थितियों के लिए तैयार नहीं हूँ। बाकी आप लोगों की जैसी मर्जी।"

यह कहकर पापाजी अपने कमरे में चले गये। मुझे उनका तर्क समझ नहीं आया, फिर भी मैंने बहुत उम्मीदों से पतिदेव की ओर देखा। वे कुछ नहीं बोले। मैं समझ गयी कि या तो वे अपने पापा के फैसले में उनके साथ हैं या पापाजी का विरोध नहीं करना चाहते हैं। डैडी ज्यादा देर वहाँ नहीं रुके और चुपचाप वापस चले गये। जिस किस्मत को लेकर वे मेरे पास आए थे वह किस्मत शायद आभासी थी जो मेरे पास तक आकर वापस चली गयी।अब ड्राइंग रूम में सिर्फ़ मैं थी। मेज पर पड़ा काॅल लेटर मुझे चिढ़ा रहा था। मैं फूट फूट कर रो पड़ी। एक बार मन किया कि मैं अपनी सारी डिग्रियां फाड़ दूँ लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती थी क्योंकि उनको पाने में मेरी मेहनत के साथ मेरे घर वालों की भी मेहनत थी।

धीरे धीरे अपनी नौकरी की बात मैंने मन के एक कोने में दफन कर दी। फिर भी कभी कभी वह एक टीस बनकर मेरे सीने में उभर आती थी।

धीरे धीरे गृहस्थी से बचे समय में कविता कहानी लिखना शुरू किया। अक्सर मेरी कहानियों में वह टीस दिख जाती थी। अब मैं इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने लगी और बस बढ़ती चली गयी। घर पर रहते हुए मैं अपनी कहानियों के माध्यम से मैं लोगों तक पंहुचने लगी। मैं बहुत खुश थी।

शादी के लगभग आठ साल बाद पापाजी के न रहने के बाद मेरे पतिदेव की आर्थिक स्थिति कुछ डगमगाने लगी। एक दिन वे कुछ हिचकते हुए मुझसे बोले,

"अल्का ! अगर तुम कहीं काॅलेज में टीचिंग की जाॅब करना चाहोगे तो मैं लोगों से बात करूँ? तुम्हारे जाॅब करने से मेरी कुछ आर्थिक मदद भी हो जाएगी और तुम्हारा टीचिंग जाॅब करने

का सपना भी पूरा हो जाएगा।"

यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं उनसे बस इतना ही बोली,

"काश ! आज से आठ साल पहले आपने मेरे सपने के बारे में सोचा होता तो आज मैं अपने सपने को जी रही होती और आपकी भी आर्थिक मदद कर पाती।

काश ! आपने उस वक्त मेरी आँखों में देखा होता जब मेरे डैडी काॅल लेटर लेकर यहाँ आये थे तब आपको मेरी आँखों में हजारों सपने दम तोड़ते हुए दिख जाते।

काश ! एक बार आपने मेरी पीड़ा महसूस की होती। माफ करिएगा अब मेरी दुनिया टीचिंग जाॅब नहीं बल्कि यह लेखन की दुनिया है जहाँ मेरे साथ कोई हो न हो मेरी लेखनी मेरे साथ है।"

यह कहकर मैं अपने कमरे में आ गयी जहाँ मेरी लेखनी मेरी ही दास्तान लिखने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। मैंने अपना मोबाइल खोला और मुस्कुराते हुए अपनी दास्तान लिखने बैठ गयी।


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