मजबूरी
मजबूरी
"भाई, पापा नहीं रहे......." आँसुओं के बहाव में बाकी शब्द बह से गये।
"परेशान न हो, मैं आ रहा हूँ, हिम्मत रख।"
"भाई अस्पताल वाले कह रहे हैं, बकाया जमा करके बाॅडी ले जायें।"
"भाई क्या करूँ ?"
भाई की चुप्पी का कारण समझ, बोला,"भाई तुम यहाँ मत आओ, मैं ही आता हूँ।" अगले ही पल कुछ सोचते हुए पूछा, "यहाँ आपने अपना आधार या कोई पहचान पत्र लगाया था क्या ?"
"नहीं, इमरजेन्सी में भर्ती करवाया था, तब कहाँ दिया था। आज एकाउंट वाला कह रहा था, सो ले कर आ रहा हूँ।"
"आप वहीं रुको, मैं ही आ रहा हूँ।"
मुँह को कपड़े से लपेट, अस्पताल के कार्य कर्ताओं से नजरें चुराता हुआ, आँखों में आंसूओं का बाँध रोके, धीरे से वो वहाँ से निकल गया।
साथ वाले मरीज का साथी राघव, सब देख सुन रहा था। तीन दिन से दोनों के मरीज आई सी यू में आस-पास के बेड पर थे। पहले दिन बड़ा भाई जब आया था, कोई जमीन बेचकर एक लाख अस्सी हजार लाया था। पर दोनों खुसुर-फुसुर कर रहे थे, मानेंगे नहीं बिल बहुत लम्बा हो गया है। अगले दिन छोटे ने अपनी बाइक की चाभी देते हुए कहा, "इसे भी बेच दो, फिर जब पैसे होंगे, दूसरी ले लेंगे।" अनमने मन से बड़े भाई ने चाभी पकड़ ली। शाम को बत्तीस हजार देते हुए कहा,"आगे क्या होगा, अब तो कुछ भी नहीं बचा, धीरे-धीरे सब कुछ बिक गया ?"
राघव पुरानी बातें सोच ही रहा था कि एक कागज़ उड़ता हुआ सामने आ गिरा। उसकी सोच वहीं रुक गयी। किसी रामेश्वर प्रसाद का बिल था। फेंक दिया। तभी याद आया साथ वाले बेड के मृतक मरीज का यही नाम था। लपक कर बिल उठाया, पलटकर फाइनल अमाउंट पर नज़र डाली, एक लाख बत्तीस हजार कुछ, बकाया। हाथ से पर्चा छूट सा गया। सब समझ आ गया। आँखों से आँसू की चंद बूँदें टपक गयी।