मीरा
मीरा
शुरुआत में, जब उसकी देह का आकर्षण सर चढ़ कर बोलता था तब संयुक्त परिवार के सैकड़ों बंधनों और कुछ उसके मितभाषी स्वभाव के कारण उससे मिलने के उन्हें बहुत कम अवसर मिला करते थे, और फिर जब बच्चे बड़े होने लगे, वे हर महीने खर्च के लिये उसके हाथ में पैसे पकड़ाते हुए पता नहीं कब घर के वो रोबदार मुखिया बन गये जो हर समय अत्यंत व्यस्त रहता था और घर के लोगों से बराबरी के स्तर पर बात करना उसकी शान के विरुद्ध था।
वो तो अब रिटायरमेंट के बाद, जब जीवन में साँझ गहराने लगी है, उनको अपनी मीरा और बच्चों पर ध्यान देने का समय मिला है। अब उनको याद आया है कि वह कम भले ही बोलती हो पर न कभी झूठ बोलती है और न सच बोलने से डरती है।
वो सारे दिन कड़ी मेहनत करती है पर शिकायत कभी नहीं करती और सबसे बड़ी बात.... बिना उनसे कोई खास मदद माँगे, अकेले अपने दम पर उसने परिवार और बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ सँभाल लीं और जब तक उनका ध्यान इस तरफ जाता, सबके सब अपने आप में व्यस्त हो चुके हैं।
अब वो महसूस करने लगे हैं कि वो तो मीरा से बहुत प्यार करने लगे हैं, उसका साथ चाहते हैं और उसको खोने से उन्हें डर लगता है। अब अफसोस होता है कि उन्होंने अभी तक इस प्यार को कभी जताया क्यों नहीं ? उसके लिये कभी कुछ किया क्यों नहीं ! उसका हाथ पकड़ कर बैठा लिया था उन्होंने और आँखों में आँखें डाल कर पूछा था-
"तुमने आज तक कभी मुझसे कुछ नहीं कहा ! आज हमारी शादी की सालगिरह के दिन मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे कुछ माँगो...."
वह अविश्वास भरी नजरों से उनको देख रही थी पर जब वो इसरार करते ही रहे तो बोली- "साकेत भवन के पीछे वाले कमरे में जो सदानंद बाबू हैं, वो बहुत बीमार रहने लगे हैं। उनको यहाँ ले आइये, मैं उनकी सेवा करना चाहती हूँ।"
चौंक उठे थे वह..."वो बूढा ? आधा पागल ? तुम उसे कैसे जानती हो।"
थोड़ा हिचकिचाई जरूर थीं मीरा, पर उनको पता है कि वो झूठ नहीं बोलेगी-
"हमारे पड़ोसी थे वह ! हम आपस में शादी करना चाहते थे ! मेरी वजह से ही उनकी ये दशा हुई है।"
पता नहीं कब, उसके हाथों पर से उनकी पकड़ ढीली हो गई थी।