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Avnish Kumar

Inspirational

3.2  

Avnish Kumar

Inspirational

कागज़

कागज़

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"कागज़ दिखाओ गाड़ी के" ऐसा बोल कर किसी चौराहे पर खड़ा पुलिस वाला आते-जाते लोगो से चाय पानी का जुगाड़ कर लेता है।

मैं किसी नेता की तरह कागज़ की इस दशा पर बात न कर। मैं उन कागज़ के टुकड़ो की बात करूँगा, जो आज मैने अपने कॉलेज (जो की एक इंजीनियरिंग कॉलेज है) के इर्दगिर्द देखे है। यहाँ कागज़ों की अजब सी दौड़ चलती है, जहाँ कागज़ी घोड़े सरपट दौड़ते है। मैं भी उस दिन कुछ कागज़ ओह सॉरी! पैसे निकालने एटीएम में गया।

कुछ जोड़े तो टिश्यू पेपर (एक प्रकार का कागज़) सभ्यता का अजीब प्रदर्शन कर रहे थे, जो दूर से प्रेमालाप सा प्रतीत होता था परंतु इसमें प्रेम के वास्तविक स्वरूप का लेश मात्र भी नहीं था और यह बात इस तथाकथित प्रोयोगात्मक युग में कही तक ठीक भी बैठती थी। अरे! अब कहाँ किसी को चहरे में चाँद और महबूब की ज़ुल्फो में बादल दिखते है। इन्ही लोगों के आस पास कुछ छात्र जो की हाथों में सपनो की राख की कालिख से पुते कुछ कागज़ जिन्हें पढ़ाई की भाषा में नोट्स कहते है, लिए बेतरतीबी से टहल रहे थे। ये वो कागज़ थे जिन पर जिम्मा था, इन छात्रो को बेहतर इंसान बनाने का।

 मगर क्या! किताबों से भरी लाइब्रेरी से ही अच्छे इंसान निकलते है??

     इस भीड़ से दूर एक और दुनिया थी, जिसमे एक 8-9 साल की लड़की दो बांस के सहारे टिकी रस्सी पर करतब दिखा रही थी। उम्मीद उसे भी यही थी कुछ कागज़ों की, कुछ सिक्को की मगर जब दुनिया में लोगो के स्तर का पैमाना ही ये चंद सिक्के/नोट हो तो भला कोई अपनी शान में से कुछ किसी को क्यों देगा और फिर ऐसा करने से उसके पायदान में गिरावट भी तो आ जायेगी।

    कुछ पल के बाद जब वो नन्ही आँखे उम्मीद के आकाश से उतार कर, यथार्त की ज़मीन पर आई। तो मैने देखा उन नन्हे हाथो में एक पुराना सा कटोरा था जिसमें कुछ छुट्टे पैसे पड़े थे, वो लड़की बारी बारी से सबके आगे उस कटोरे को बढ़ा रही थी। जब मेरी तरफ वो हाथ बढ़े, तो मै अजीब सी उलझन में पड़ गया। एक तरफ जेब में पड़े वो 500 के दो नोट और सामने मुँह फैलाये पूरा महीना, दूसरी तरफ वो नन्ही उम्मीद भरी आँखे। एक तरफ मानवीय भावनाओ से भरा दिल और दूसरी तरफ भौतिक जीवन जिसकी ज़रूरते भी पूरी करनी थी। 

      ऐसे में ज्यादातर ज़रूरत जीत जाती है या यूँ कहे तो आज के दौर में भौतिक संसार हमारी भावनाओं पर अक्सर हावी रहता हैं।उस दिन भी वही हुआ। 

    अगले पल मैं अपने कमरे में  था और मेरे हाथों में वो 500 के दो नोट थे, आँखो में उस नन्ही सी बच्ची की सूरत। मैं कागज़ के पैमाने में उस परिवार से जीत गया था। लेकिन मेरी जीत की निशानी ये नोट मेरे मन और हाथ दोनों को जला सा रहे थे।


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