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Avnish Kumar

Drama

5.0  

Avnish Kumar

Drama

मिट्टी

मिट्टी

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आज पूरे 12 साल बाद गाँव लौटा, इन 12 सालों में यहाँ कुछ भी तो नहीं बदला। वही रास्ते के किनारे खड़े पेड़, वही उनपर बैठे मोर, जो कभी कभी आती जाती गाड़ियों की आवाज़ सुनकर चिल्ला पड़ते। बस वो सड़क जो कभी कच्ची, धूल भरी होती थी, अब पक्की हो चुकी थी। कभी जिस पर कभी सभी के पैरों के निशान बनते थे, अब किसी के निशान को समेटना नहीं चाहती थी। इस सड़क ने भी कई लोगों को आते जाते रोते बिलखते देखा होगा, शायद तभी इतनी निर्मोही बनी होगी। इन्ही ख़यालो में डूबा, मैं अपने गाँव वाले घर के सामने था। ये वही घर था जहाँ मैं 12 साल पहले में अपने दादा दादी के साथ रहता था। घर पहुँच कर मैंने मुख्यद्वार को खोला तो एक पल मैं वो सारी यादें बाहे खोले सामने बुलाने लगी, लगा जैसे रसोई घर से दादी आवाज़ देकर बोल रही हो- "बेटा इतनी देर कहाँ हो गयी, अब जल्दी से खाना खा ले नहीं तो तेरे दादाजी गुस्सा करेंगे"

मैं भारी कदम से आगे बढ़ रहा था। घर की बैठक में जहाँ कभी दादाजी अपने उम्र के लोगों के साथ घंटो बातें किया करते थे। वो वैसे ही पढ़ी थी बस अब किसी के बोलने की आवाज़ नहीं आ रही थी। इसी बैठक में रखे एक पुराने संदूक को मैंने खोला तो, उसमे कई पुराने दिन की अनमोल यादें की, दादा दादी की एक तस्वीर, चश्मा, गीता जिसकी सुन्दर कांड की एक चौपाई पर मोर पंख रखा हुआ था और उनकी वो छड़ी जिसका एक हिस्सा बचपन मेरे खेलने से टूट गया था, मैं इन्ही यादों में डूबा, खुद में बाकि बचे बचपन के निशान खोज रहा था। तभी एक बुज़ुर्ग जिनकी उम्र लगभग 60 साल होगी, ने अचानक से मुझे राजू कह के पुकारा, मैं खुद का ये नाम भूल चुका था, मैं जो कभी इस गाँव में रहते हुए राजू था स्कूल में राजेश अब राज बन चुका था। मुझे उन्हें पहचानने में बिल्कुल भी वक़्त नहीं लगा, ये पड़ोस में रहने वाले बुज़ुर्ग थे जिन्हें मैं छोटे बाबा बोलता था। जो कभी मेरे दादाजी के हमेशा साथ रहते थे।

उन्होंने कहा- "बेटा! तुम राजू हो ना"

मैंने कहा-"हाँ मैं राजू ही हूँ"

उस दिन हम लोगों ने घंटो बातें की उन बातों में उन्होंने दादाजी के साथ मेरे रिश्ते को दुबारा मजबूती दी। मेरे दादाजी जो की अब दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी बातें आज मेरे साथ थी बस आवाज़ बदल गयी थी।

उनसे बात करने के बाद में पुराने दिनों से फिर रिश्ता जोड़ने निकल पड़ा था। इतने दिनों बाद बचपन में साथ खेलने वाले बच्चे या तो बाहर कमाने या पढ़ने चले गए थे। जैसे तैसे पड़ोस का एक लड़का जिसका नाम महेश था मिला, हमने बचपन की बहुत सी बातें की। ये बचपन के दोस्त भी किसी निशान की तरह होते है, जिनके साथ बात कर के हम खुद में आये बदलाव को भाप सकते है, बचपन में जितनी सहज होकर हम अपनी हर बात कह देते है जवानी में ऐसा नहीं होता शायद, परते जो चढ़ जाती घमण्ड की और भी बहुत सी। मैंने महेश से बातों ही बातों में छोटे बाबा का नाम पूछा तो उसने उनका नाम जोर सिंह बताया जिन्हें सब बच्चे 'जोरू' कह कर बुलाते है। उसकी ये किसी बुज़ुर्ग का नाम लेकर बुलाने वाली बात, वो भी उल्टा सा नाम, मुझे बहुत बुरा अनुभव करा रहा था। फिर उसने बताया की वो सभी के साथ बहुत सहज हो कर रहते है। बहुत जिंदादिल है वो। एक उम्र के बाद बुज़ुर्ग और बच्चों का स्वाभाव एक समान हो जाता है जिसमे किसी के लिए द्वेष नहीं होता। ये वो अवस्था होती है जिसमे बच्चों के अंदर बोध नहीं होता और बुज़ुर्ग के अंदर ज्ञान होता है जो दोनों को सहज बनाता है।

अगली सुबह एक शोर के साथ नींद खुली। ये आवाज़ छोटे बाबा के घर से आ रही थी, रात में बच्चों की एक टोली ने घर से बाहर सोते हुए उनकी चारपाई को शमशान में पटक दिया था, इस टोली का सरदार महेश खुद था। इस बात पर बुज़ुर्ग और उनके बेटे में कहा सुनी हो गयी थी। सामने जवान बेटे की आवाज़ थी जो आदेशात्मक होकर उन्हें बच्चों से बात नहीं करने की चेतावानी दे रही थी और वो सर को झुकाए मुलज़िम की तरह खामोश थे।

मैंने भी उनके पास पहुच गया। उनके घुटने में हल्की चोट थी जो दिख रही थी। मगर एक चोट जो उनके बेटे ने उनकी बोल चाल को निर्धारित कर के दी उसकी झलक से उनकी आँखे नम थी, सर के गमछे से मुँह पोछते हुए उन्होंने कहा- "ये खुद को साल में मुश्किल से एक बार आता है, मेरे साथ बोलने बैठने का समय कहाँ है, यही बच्चे है जिनके सहारे समय काट रहा हूँ" उनकी इस बात का जवाब नहीं था मेरे पास, क्या बोलता मैं, समझ नहीं आ रहा था कि आज के युग की भागदौड़ को कैसे उस ठहरे हुए रिश्ते के सामने रखू और वैसे भी जहाँ प्रेम हो वहाँ कोई बहाना टिक भी तो नहीं सकता।

अगले कुछ दिनों तक मैंने मुहल्ले में कोई हलचल नहीं देखी, छोटे बच्चों का बचपन वैसे भी tv खा चुका थी और जवान बच्चों की शरारत के एक मात्र श्रोत छोटे बाबा अब किसी से बात भी नहीं कर रहे थे।

  अगले दिन मुझे वापस आना था तो रात भर नींद नहीं आयी। रिश्ते उस सूखे कुँए की तरह हो गए है, जिस पर कभी बिना कपड़ो के नंग धड़ंग नहाते थे, जिस पर पानी भरने के लिए दोपहर में सबसे नज़रे चुराता था और उसके दो घूँट पानी को खुद की बहुत बड़ी उपलब्धि मान लेता। भरे पूरे परिवार में सभी लोग है, मगर अब स्वाभिमान की परत इतनी गहरी चढ़ गयी है कि कहाँ किसी से सामना हो पाता है, अब कहाँ किसी अपने के प्यार के दोपहर में निकलते है, कहाँ किसी के प्यार के घूँट रास आते है।

सुबह जब आँख खुली तो हल्की सी बारिश हो रही थी। यूकेलिप्टिस के फूल मौसम में ताज़गी भर रहे थे, मिट्टी की गर्मी से माहौल में हरारत थी। घर के सामने सूखे पड़े कुँए में पानी की बुँदे खुद को खो कर, कुँए को फिर से जीवित कर रही थी। सामने महेश अपने कंधे पर छोटे बाबा को उठाये हुए ला रहा था जिन्हें पैर में फिसलने से चोट लगी थी, साथ में कुछ लड़के- "जोरू को उठा लिया" चिल्ला रहे थे।

मैं और छोटे बाबा का बेटा दोनों ये दृश्य देखकर खामोश थे, मेरी नज़रों में सवाल थे- "भैया! क्या रोक पाओगे इस बारिश को"

उनकी नज़रो में अफशोस था, बारिश से अब मिटटी बैठ चुकी थी।


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