एक भूखा
एक भूखा
एक शाम जब थोड़ी भूख महसूस हुई तो कमरे से निकल बाहर गली में खुली दुकान पर जा पहुँचा। ये वो दुकान थी, जहाँ से उठती खाने की खुशबु, किसी के भी मुह में पानी लाने के लिए काफी थी। दुकान पर कुछ लड़कियाँ खड़ी थी, जो खाने की चीज़ों का आर्डर दे रही थी, साथ ही साथ हिदायतों और फरमाईशों का दौर भी जारी था। कोई एक्स्ट्रा खट्टी चटनी की फरमाईश करती, तो कोई पिछली बार खाने में नमक कम होने की शिकायत।
जैसे तैसे जब ये भीड़ छटी, तो मैंने भी अपनी हल्की आवाज़ में कहा- "भैयाँ एक चीज़ बर्गर"
और वहाँ खड़े दुकानदार ने आगे के दो दाँत निकाल कर कहा- "भैयाँ 10 मिनट लग जायेगे"
मैंने भी सर हिला कर सहमति दी और सामने खुली जगह में अपने फ़ोन की स्क्रीन पर नज़रे गड़ाये इंतज़ार करने लगा। अजीब है न ये फोन भी कितने बहाने मिल जाते है लोगो से मुँह फेरने के, अगर कोई आपको बोर कर रहा हो तो स्क्रीन देख कर बोल दो सॉरी जाना पड़ेगा, आप चाहे तो फेक कॉल भी कर सकते है, और आपको आपकी निजता मिल जाती है।
मै फ़ोन के समंदर डूबने की कोशिश में लगा था, तभी अचानक एक 10-12 साल का एक लड़का, जिसके एक हाथ में मैली सी बोरी, दूसरे हाथ में कुछ सिक्के थे। मेरे सामने खड़ा था, चहरे पर कुछ था, जिसे उम्र वाली मासूमियत कहना गलत नहीं होगा। क्यों की ज़रूरत और ज़िन्दगी को मासूमियत से कोई खास मतलब कहाँ होता हैं। ये वही मासूमियत थी जो शायद कम उम्र की वजह ज़रूरतों और ज़िन्दगी से बच गयी थी।
उसने मेरी तरफ हाथ बड़ा कर कहा- "भैया! पैसे दे दो"
ज़िन्दगी में पहली बार मैंने पैसे देने की जगह एक सवाल किया जो सही था या गलत नहीं पता, मुझे अब तक नहीं पता,
मैंने थोड़ा सख्त होकर पूछा- "क्या करेगा पैसे का"
उसने थोडा झिझक के साथ जवाब दिया- "भूख लगी है खाना खाऊँगा"
मैंने उससे कहा- "रुक अभी बर्गर बन रहा है खा के जाना, और देख पूरा खाना पड़ेगा"
इस बात के दो अर्थ थे एक ओर जहाँ मै उसे अपना बर्गर दान करने वाला बनके प्राउड फील करना चाहता था, वही मुझे ये भी डर था की अगर कही सच्ची में इसने ये बर्गर खा लिया तो मुझे फिर इंतज़ार करना पड़ेगा।
वो मेरे सख्त तेवर देख रुक गया।
अब मुझे अपने बर्गर जो सामने बटर में तैर रहा था, उस पर संकट नज़र आ रहा था।
वो लड़का मुश्किल से वहां एक मिनट रुका होगा और फिर मौका पाकर वहाँ से चला गया, कुछ कदमो की दूर पर वो मुझे जाता हुआ दिखाई दिया, मै भूखा था
क्या वो भी भूखा था?
अगर वाकई भूखा था तो रुका क्यों नहीं?
मगर अब सामने से दुकान वाले भैया ने आवाज़ लगाई- "भैया आपका बर्गर"
अब मैंने उन्हें 2 मिनट इन्तज़ार का इशारा किया, मुझे उम्मीद थी वो आएगा। मैं उसे भीड़ में देखता रहा शायद उसे भूख तो थी मगर बर्गर की नहीं ज़िन्दगी की, बचपन की, उन सभी सपनो की जो कही खो गए थे या शायद आधुनिकता की दौड़ में ज़रूरतों से हार गए थे।
अब मैं भी बर्गर हाथ में थामे निकल पड़ा था, उन्ही रास्तों से जहाँ से हर रोज कितने लोग निकलते हैं, खुद में मगरूर हो कर।