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हिसाब किताब बराबर

हिसाब किताब बराबर

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आज तीन दिन बीत गये और पुनीता नहीं आई थी। शायद बीमार पड़ गई होगी। उसने नोटिस किया था कि आँफिस में उसकी मां भी नहीं आ रही थी, नहीं तो उसी से पता चल जाता कि क्या बात है ? लैट्रीन और बाथरूम की सफाई नहीं हो पा रही थी। वह खुद ये काम नहीं कर पाता है। अजीब सी घिन लगती है। ये काम उसे अपना नहीं लगता। ये काम इन्हीं लोगों के बस का है। रामदेई से पहले उसने कहा था परन्तु रामदेई ने कहा था, ‘मुझे तो फ़ुरसत नहीं है, उस समय तो मैं आँफिस की सफाई करती हूँ। हाँ, अपनी लड़की को भेज दिया करूंगी, वह सुबह.-सुबह आपका काम निपटा दिया करेगी।‘ तब से आदत बन गई है उसे देखने की। पुनीता रोज़ आती है, लैट्रीन की सफाई करती है और साथ में अपने आप बोनस के रूप में बाथरूम और बरामदे की भी सफाई कर जाती थी। उससे सफाई करवाने से ज्यादा उसे देखना और बातें करना ज्यादा अच्छा लगता था। वह सांवली खूबसूरत और नाज़ुक थी और उसमें ग़जब का आकर्षण था। उन्नीस-बीस वर्ष की वह लड़की किसी को भी लार टपकाने के लिए विवश कर सकती थी। मकान मालिक का परिवार यदि ऊपर से झांक न रहा होता था तो वह कुछ देर रूक कर वह उससे बतयाती भी थी। बतयाती तो कुछ कम उसकी बातों पर मुस्कराती ज्यादा थी। 


कोई कह रहा था कि उसकी हत्या हो गई है। यह भी शक व्यक्त किया जा रहा है कि उसने आत्म-हत्या की हो। ग़ायब हुये दो.-तीन दिन हो गये थे। उसके माता पिता ने ग़ायब होने के खबर उसी दिन थाने में लिखा दी थी। पुलिस ने गंभीरता से नहीं लिया था, जैसा कि वह अक्सर निम्न वर्ग के साथ करती है। एफ0आई0आर0 में सम्भावित शक उन्होने एक स्थानीय स्कूल के प्रबन्धक रंजीत सिंह पर व्यक्त किया था, जहाँ वह उस दिन गई थी सफाई का काम करने। हत्या, आत्म.हत्या कुछ भी हो लाश भी तो मिलनी चाहिए।


कुछ अटकलबाजी में कह रहे थे कि वह अपने अवैध सम्बन्धों के कारण भाग गयी होगी। कहीं से ये खबर आ रही थी कि उससे प्यार करने वाले तो यहीं पर ही हैं। इस सम्बन्ध में स्थानीय दो नवयुवक अब्दुल एवं बलराम का नाम लिया जा रहा था, जो शायद उसके प्रेमी थे। ये दोनों उसके भाई परेश के दोस्त भी थे। 

ठाकुर रंजीत सिंह से पूछ-ताछ जारी है। उन्होने बताया कि उस दिन दो-तीन घंटे सिर्फ सफाई का काम हुआ था और उन्होने तीनों को उस दिन का भुगतान करके भेज दिया था। उसके बाद वे तीनों कहाँ गये उन्हें कुछ नहीं ज्ञात है। उनके बयान की ताकीद उनके ड्राइवर सज्जन सिंह ने भी की, पुलिस के सामने। ठाकुर साहब प्रभावशली व्यक्ति हैं। स्थानीय विधायक का उन पर वरदहस्त है। पुलिस को ठोस प्रमाण की तलाश है। अब्दुल और बलराम को गिरफ्तार किया जा चुका है और उनसे गहन पूछ-ताछ की जा रही है। रामदेई बाबूराम एवं परेश से जानकारियाँ एकत्र की जा रही हैं। लड़की की मां ने बताया कि उस दिन अब्दुल स्कूल का चपरासी और बलराम स्कूल का स्वीपर आये थे और कहा था कि स्कूल में सफाई का काम ज्यादा है और एक और व्यक्ति की जरूरत है। पिता बाबूराम और बेटा परेश थे नहीं, इसलिए उन दोनों के बहुत ज़ोर देने पर उन्होंने पुनीता को, उनके आश्वासन पर स्कूल काम करने भेज दिया था।

अचानक उसकी नींद खुली या वह सपने में था ? आवाज़ आ रही थी। झाड़ू चलने की आवाज़। कोई लैट्रीन साफ कर रहा था, पानी कौन दे रहा था सफाई के लिए ? प्रदुम्न ही हैण्ड पम्प से पानी निकाल कर सफाई के लिए उड़ेलता था। इतनी रात में कौन है? अंधेरा ज़बरदस्त था। बिजली चली गई थी। परन्तु वहाँ पर कुछ प्रकाश क्यों लग रहा था ? पुनीता इस समय क्यों सफाई कर रही है ? वह नींद के नशे में या सपने में यंत्रवत उधर ही चल देता है। अरे ! पुनीता ही है वह तेजी से झाड़ू चला रही है। गंदगी और पानी लैट्रीन के पाट पर फैला हुआ है, परन्तु वह खत्म नहीं हो पा रहा हैं। वह उसे देख लेती है और उसकी तरफ गंदगी उछाल देती है। उसके चेहरे, मॅुह और गरदन पर गंदगी चिपट जाती है और पानी के छींटें सारे शरीर पर। वह पलटकर भागता है, और वाश-बेसिन पर जाकर अपने आप को साफ करने लगता है, परन्तु लाख प्रयत्नों के बाद भी वह अपनी गंदगी साफ नहीं कर पा रहा है। लाइट आ गई है, परन्तु पुनीता नहीं दिखाई पड़ रही है। शीशे में अपना चेहरा देखता है, कहीं कोई गंदगी नहीं चिपटी है, उसका चेहरा वैसा का वैसा ही है, उनींदा और अलसाया हुआ। परन्तु अभी जो घटित हुआ, कांप उठा वह पसीने में भीग उठा। डर उस पर हावी हो गया। वह वापस बेडरूम पर, फिर वह न लेट सका, न सो सका और न ही लाइट बंद कर सका। वह बैचेनी से सुबह का इन्तज़ार करने लगा।

सुबह के सात बजे हैं, पुनीता आ गई है। वह हैण्ड पम्प से बाल्टी में पानी निकाल कर लैट्रीन के पास बाथरूम तक ले जाता है और मग से पानी निकाल कर डालता जाता है। वह सफाई कर रही है। सफाई करते समय वह अपनी चुन्नी एक तरफ सम्हाल कर रख देती है। सफाई करते उसके अंग-प्रत्यंग हिल रहे हैं। उसके वक्ष घूमते रहते हैं। वह अंधेरे और उजाले की एक अश्लील चौखट पर खड़ा है। वह उन्हें छूता है अनजाने दिखकर फिर जान कर। एक-.दो बार वह उपेक्षा करती है, परन्तु बारम्बारता पर तमक कर खड़ी हो जाती है। 

‘क्या है ? क्यों छू रहे हो?‘

‘ऐसे ही। वह खिसियाया।‘ 

‘नहीं...। ये ठीक नहीं है। मुझे बुरा लगता है। तमीज से पानी डालो।‘ उसे उसका गुस्सा होना जायज़ लगता है वह अपने आप को संयत कर लेता है। उस दिन वह फिर कोई हरकत नहीं करता है। अगले दिन फिर उसका ईमान डगमगा जाता है। वह आँखों के इशारे से मना करती है। रूक जाती है, खड़ी हो जाती है, फिर काम पे लग जाती है। परन्तु प्रदुम्न कुछ ज्यादा ही खुल गया, वह फिर शुरू हो जाता है। पुनीता बिगड़ गई, बिफर गयी...। वह सब छोड़.-छाड़ कर जाने लगती है। वह उसे मना लेता है, रोक लेता है। 


‘क्यों, करते हो, ये सब? आइंदा से किया तो मां से कह दूँगी। फिर आंऊगीं नहीं।‘

‘ऐसा मत करना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ। मुझसे रहा नहीं जायेगा।‘

‘आप तो अच्छे घर के हैं, आपको ये सब शोभा देता है? प्यार-वार क्या करोगे, तुम कुछ और ही करना चाहते हो।‘

‘यही तो प्यार का इज़हार है, जानम ! मैं तुम्हारे लिए, कुछ भी करने को तैयार हूँ।‘

‘मुझे पसंद नहीं है, ये सब, समझे ? मैं ऐसी-वैसी लड़की नहीं हूँ। वो कोई और होगी, जो पैसे में बिकती होगी ?‘

‘मैं कब कहता हूँ कि तुम ऐसी हो। मगर मैं क्या करूँ, तुम इतनी सुन्दर हो कि तुमसे लिपट जाने को दिल करता है।‘ वह मुस्कराई और चलते-चलते बोली ‘जूते खाओगे ?‘

वह आती रही, मुस्कराती रही, बातें बनाती रही, काम करती रही, उसकी भी थोड़ी-बहुत छेड़छाड़ चलती रही। सफाई के बाद, वह उसे चाय-बिस्कुट, चॉकलेट और छोटे-मोटे गिफ्ट देता रहा। थोड़े ना-नुकर के बाद वह स्वीकारती रही। उसे लग रहा था कि वह उससे प्रभावित हो रही है या उसके प्रेम पर यकीन कर रही है। एक दिन बातों-बातों में उसने एक ऐसा चारा फेंका जिससे कोई लड़की शायद ही फंसने से बच पाती हो।

‘मुझसे शादी करोगी?‘ उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। ऐसा उससे अब्दुल और बलराम कई बार कह चुके थे। परन्तु वह उनके झांसे में कभी नहीं आयी।


‘बनिया, बक्काल मुझ मेहतर से शादी करेगा ? क्यों, चूतिया बनाते हो ? सिर्फ अपना मतलब निकालना चाहते हो।‘ वह झूंझला कर तमक कर बोली।

‘कसम से।‘ अपने गले का कौवा पकड़कर आश्वश्त किया।‘ मैं, प्रदुम्न गर्ग सीरियसली वादा करता हूँ।‘ अबकी बार वह मुस्करायी.....‘जन्मों के झूठे हो...कसमें तो खाने वाले होते हैं झूठे.....जाओ बेवकूफ मत बनाओ.....रास्ता छोड़ो.....जाने दो...देर हो रही है....और वह चली गई।

उसे लगा कोई उसके सीने पर बैठा है, सांस लेना भारी हो रहा है। डर की वजह से वह आँख खोलकर देखना भी नहीं चाहता हैं, अब उस पर सारा वजन डाल दिया गया है और उसने प्रदुम्न के गले में अपने हाथ चिपका दिए हैं और उनका दबाव बढ़ता जा रहा है। उसकी आँखें खुली तो देखा पुनीता उस पर सवार है, उसकी काली आँखें लाल सूर्ख हो रही थी ओैर उसकी आँखें उस पर स्थिर हैं। भय की वजह से उसकी चीख निकली परन्तु आवाज़ मूंह से बाहर नहीं आ रही थी। जितना वह उससे छुटने की जी तोड़ कोशिश करता उतना ही पुनीता की अंगुलियों का दबाव उसकी गरदन पर बढ़ता जाता। उसे लगा उसकी मौत सन्निकट है। पहले उसकी आँखों के गोले बाहर निकलेंगे फिर वह निकल जायेगा। अचानक उँगलियों का दबाव ढीला पड़ने लगा था और धीरे.-धीरे उसकी गर्दन आज़ाद हो गयी। परन्तु उसने अब उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों से जकड़ लिया और उसके होंठों पर अपने होंठ रखते हुये अपने मुंह से उसके सम्पूर्ण चेहरे पर अपनी सत्ता स्थापित कर दी। प्रदुम्न का सारा चेहरा लहुलुहान हो गया, होंठों से खून रिस-रिस कर चारों ओर फैलने लगा। खून चेहरा, गर्दन, सीना को भिगोता हुआ उसके सारे कपड़े गीले करता जा रहा था। खून की धारें निकल रही थीं और खून रूकने का नाम नहीं ले रहा था। घबराहट में उसकी जान निकलने वाली थी। आखिरकार पसीने से तर बतर और बुरी तरह से हांफता हुआ वह अपने बिस्तर पर उठ बैठा। पुनीता नदारद थी और खून का सैलाब भी। खून की एक भी छींट नजर नहीं आ रही थी। उसने दौड़कर अपना चेहरा शीशे में देखा, उसका वजूद सही सलामत था, परन्तु उसे ऐसा लगा उसका सारा खून निचुड़ चुका है।

आज सुबह-सुबह ही मकान मालिक और उनका परिवार बाहर चले गये थे, अपने एक रिश्तेदार के यहाँ शादी में भाग लेने। पूरा घर खाली पड़ा था। प्रदुम्न आज बेसब्री से उसका इन्तज़ार कर रहा था। वह कुछ आज अतिरिक्त सुन्दर लग रही थी। उसने जींस और टाप पहन रखी थी। इस ड्रेस में उसके उभार और कटाव स्पष्ट एवं खुलकर नजर आ रहे थे। एक निश्चित संयम को डोर से बंधे प्रदुम्न ने अपना आपा खो दिया। कामुकता में बर्बरता प्रवेश कर चुकी थी और उसने उसे रगड़ना और मसलना शुरू कर दिया। उसने लगभग प्रदुम्न को धकेलते हुए अपने आप को उससे अलग किया और बाथरूम से बाहर निकल आयी। उसके कई अंग, प्रत्यंग कल्ला उठे। अविश्वनीय और अप्रत्याशित घटना क्रम में उसके अंतःकरण को छील दिया था और उसकी निजता और अस्मिता को चोट लगी थी। दुख और अपमान से उसके आँसू निकल पड़े।

‘आज ही मैं मां को तुम्हरी सारी करतूत बताऊॅंगी। अब से शर्तिया यहाँ नहीं आने वाली। मां तुम्हारा सारा कच्चा चिट्ठा आँफिस में बतायेगी और तुम्हें वहीं जलील करेगी और तुम्हारी शराफ़त बेनकाब करेगी।‘ उसकी आवाज़ में चीख और तेजी नहीं थी, परन्तु उसका लहजा हिकारती था। वह बाथरूम में खड़ा, हाथ जोड़कर मौंन क्षमा याचना कर रहा था।

‘अभी, परेश भइया को भेजती हूँ । वह तुम्हारी वह धुनाई करेगा कि तुम्हें छठी का दूध याद आ जायेगा। ज़रा सी छेड़छाड़ पर जब उसने अब्दुल और बलराम को हॉस्पिटल की सैर करा दी तो, तुम कहाँ ठहरते हो ? ‘वह बिसुरते और बिफरते हुए चली गयी थी, और उसे छोड़ गई थी पश्चाताप के जंगल में विचरते हुये और सम्भावित प्रलय की आशंका से दो-चार होते हुए। 


अरे! यह क्या ? पुनीता एकदम नंग धडंग उसके बेड पर लेटी हुयी है। उसके शरीर में एक भी चिट नहीं हैं । वह साइड से लेटी हुई, उसकी तरफ देख कर मुस्करा रही है । उसकी मुस्कुराहट में आकर्षण और आमंत्रण है। वह एकटक उसे देखे जा रहा है। वह उसे आँखों से लील रहा है। वह उसे छूना चाहता है, उसकी खूबसूरती महसूसना चाहता है, परन्तु कोई हिचक उसे स्थिर और अविचल किये है। अब उसने करवट ले ली है और सीधे हो गयी पीठ के बल। उसके सारे सामान खुले पड़े है। वह उसे उंगलियों के इशारे से अपनी ओर बुलाती है। वह आवेग में अपने सारे वस्त्र उतार देता है और वह भी पुनीता की तरह प्रतिरूप बन जाता है। यौनिकता उसे आमंत्रित करती है और वह उसके उपर कूद पड़ता है। परन्तु ये क्या पुनीता अदृश्य हो गयी और बिस्तर पर पड़ा कराह रहा है। उसे चोट लगी है, एक ऐसी चोट जो कहीं नजर नहीं आ रही है। वह दर्द से बिलख रहा है और विस्मित और अंचभित है। और वह एक तरफ खड़ी खिलखिला रही थी, व्यंग और परिहास की हंसी । 


उस दिन कोई हादसा नहीं हुआ । उसने उस दिन भगवान को अनवरत याद किया, संम्भावित विपदा से उसे बचाने के लिए। भविष्य में इस तरह का कोई भी प्रयास न दोहराने का भीषण संकल्प किया । यही नहीं मनसा, वाचा कर्मणा तीनों रूप से अपने को शुद्ध करने का प्रकल्प । अगले दिन पुनीता की जगह परेश सफाई करने आया तो सोचा, ज़रूर आज उसे हॉस्पिटल का मुंह देखना पड़ेगा । परन्तु कुछ भी ऐसा नहीं गुजरा, जिसकी आशंका से वह ग्रसित था उसे परेश सीरियस लगा, उसने उससे कोई बात नहीं की, उसने अपना काम निपटाया और चलता बना। और उसे छोड़ गया उधेड़बुन में जूझने कि पुनीता ने कल की घटना घर में बताई कि नहीं ? अगर बताई तो सब कुछ इतना शान्त क्यों है ? कोई घातक प्रतिक्रिया क्यों नहीं हो रही है ? वह झूल रहा था शंका-कुशंका, कयाश, अनुमानों के बियाबान जंगल में। 

पूरा हफ्ता गुज़र गया, न वह आयी न कोई बवाल आया। वह शंकाओं के साथ रिलेक्स हो रहा था। अगले हफ्ते से पुनीता फिर काम पर आने लगी, परन्तु बेहद चैकन्नी और तेज़ । मिनटों में काम निपटाया और बगैर उसकी तरफ मुखातिब हुये घर से बाहर। प्रदुम्न कुछ पूछना चाहता था, परन्तु उसने सन्नाटे की एक ऐसी दीवार खड़ी कर रखी थी कि जिसे लांघने की हिम्मत उसमें अब नहीं बची थी। उस अघटित को घटित हुए एक माह से उपर हो गया था, स्थिति तनावपूर्ण पर नियंत्रण में थी । दोनों सहज और सामान्य दिखने की कोशिश में थे, परन्तु मौनता प्रखर थी। दोनों एक दूसरे को तौल एवं परख रहे थे, सिर्फ पहल कौन करे, ये प्रश्न लटका पड़ा था। आखिर में पुनीता ही टूटी ‘अजीब, कंजूस बनिये से पाला पड़ा है, एक गिलास पानी की भी उम्मीद नहीं है।‘ वह भुनभुनाई, बगैर उसकी तरफ देखे, फिकरा कसा।‘ वह कमरे में दौड़ा और कुछ खाने को और पानी लेकर हाज़िर हो गया। प्रसन्नता प्रदुम्न के चहरे पर टपक रही थी। दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और मुस्करा पड़े और फिर हँसने लगे और देर तक हँसते ही रहे। आगे के दिन पूर्ववत आकर्षक हो गये थे, परन्तु वे दिन स्वादहीन, रंगहीन और स्पर्शहीन थे। 


एक लड़की रो रही थी उसकी रूलाई सस्वर नहीं थी पर एक चीत्कार उसे कहीं अपने भीतर सुनाई पड़ रही थी। वह पुनीता थी, उसकी आँखों से आँसू टपक-टपक कर बह रहे थे। वह तीन सीटों वाले सोफे पर बैठी सिसक रही थी। वह बिस्तर पर उठ बैठा, उसकी नज़रें उसके आँसूओं पर टिक गयी, उसे लगा वह भावुक हो रहा है और खुद रोने की स्थिति पर पहुँच चुका था। अरे ! ...अरे !...पुनीता की आँखों से आँसू की जगह खून बहने लगा। वह खून के आँसू रो रही है। खून आँखों से निकलकर गालों से होता हुआ, सारे शरीर को भीगोता हुआ, सोफे को पार करता हुआ फर्श पर गिर रहा है। उससे सहन नहीं हो पा रहा है वह बेड से उठकर सोफे पर पुनीता के पास आ जाता है। उसने उसे बाॅहों में भरकर उसके आॅसू पोंछने लगता है। लगता है खून के आॅसू निकलना बंद हो रहे हैं और वह सूखने लगते हैं। यकायक वह अपने को उसके बंधन से आजाद करती है और तड़फ उठती है। ‘छोड़ो, तुम सब मर्द एक जैसे हो। तुम लोग कोई रिश्ता कोई बंधन नहीं स्वीकारते हो। तुम्हारे लिए औरत सिर्फ मादा है।..............परेश भाई भी ........तुम जैसा ही निकला.........? उसके आॅसू सूख चुके थे और उसकी आॅखों में प्रतिहिंसा चमक रही थी। उसने उसे धक्का दिया और तेजी से निकल गई। वह वहीं गिर पड़ा था जहाॅ कभी खून के आॅसू पड़े थे। 

आफिस में आज गम का माहौल था। चर्चा थी कि रामदेई का बेटा परेश पागल हो गया है। उसे आगरा पागल खाने में भर्ती करा दिया गया है। हरदम बहन......बहन..........पुनी.............ता.......चिल्लाता रहता था । कभी एकदम से हिंसक हो उठता या फिर एकदम मृतप्राय शान्त। अपने कपड़े फाड़-.फाड़ कर फेंक रहा था या फिर एकदम से ढेर सारे कपड़े पहन ऊपर से कम्बल रजाई ओढ़ लेता था। ये कार्यक्र्रम उसका कई दिनों से चल रहा था, अनवरत, बिना किसी अवरोध की परवाह किये बिना। बाबूराम एवं रामदेई दुःख और सुख से पार हो गये लगते थे, उनके आॅसू सब सूख गये थे और वे दोनों लुंज-पुंज से थे, एकदम अपाहिज से हो गये थे। बेटी का पता नही, जिंदा या मुर्दा और बेटा पागल, ठीक होगा या नहीं? 


अचानक उसे लगा, जैसे सर में दर्द हो रहा है...............एक तीक्ष्ण दर्द........जो उसके सर को फोड़ कर रख देगा। ऊऽऽ..........उबकाई। उसमें ज्वालामुखी फट पड़ा, वह उठकर बैठ गया। बाहर बरामदे में ईजी-चेयर हिल रही थी। शायद कोई उसमें बैठा हैं । वह ज्वालामुखी शान्त करने के लिए बाहर आया। हाॅ, ईजी चेयर इसलिए हिल रही थी कि उसमें पुनीता बैठी थी, एक गम्भीर दार्शनिक मुद्रा में। आसमानी रंग के सलवार सूट में वह चिंतन मनन में लीन थी, उसने चुन्नी भी ले रखी थी, परम्परागत् तरीके से। वह स्तब्ध, निर्विकार उसे निहारता रह जाता है। वह आलोक, अवसाद की घनी अनुभूति से उॅभरती हुयी उॅगुलियों के ईशारें से उसे कुछ बताना चाहती है, कुछ दिखाना चाहती है। 


ठाकुर रंजीत सिंह के स्कूल का परिसर, में उसकी जीप खड़ी है, उसमें उनका ड्राइवर सज्जन सिंह बैठा चुनही खा रहा है। भीतर ठाकुर साहब पुनीता, अब्दुल और बलराम को काम समझा रहे हैं। स्कूल के कमरों की सफाई बलराम करेगा, मेजें टेबुल ,ब्लैकबोर्ड आदि की डस्टिंग अब्दुल करेगा तथा प्रिंसिपल का कमरा और उनका मैंनेजर का कमरा पुनीता साफ करेगी। प्रारम्भ ठाकुर साहब के कमरे से, पुनीता काम शुरू कर देती है। कमरे कें बाहर ठाकुर साहब, अब्दुल एवं बलराम आपस में कुछ फुसफुसाने लगते हैं। वह ध्यान नहीं देती है, वह सोचती है, जल्दी काम निपटायें, दिहाड़ी लें और घर खिसकें।


उसे ठाकुर साहब की लैट्रीन, बाथरूम और कमरा कुछ भी गंदा नहीं लगता है, फिर भी सफाई हो रही है। बड़े आदमी हैं भाई? बड़े आदमियों की बड़ी-बडी बातें। लेट्रीन-बाथरूम की सफाई के बाद जैसे ही वह कमरे में आती है उसे ठाकुर साहब की ललचाई कामुक और गिद्ध दृष्टि का शिकार होना पड़ता है। वह उपेक्षा करती है और अपने काम में ध्यान लगाती है कि ठाकुर साहब ने उसे चाप लिया और चुम्मनों की बरसात कर दी। वह फिसली और झटक कर चीखती-चिल्लती बाहर भागी। कमरे से बाहर दो चीलें खड़ी थीं अब्दुल और बलराम। उन्होने कबूतरी को दबोचा भीतर गिद्ध के हवाले किया। गिद्ध और चीलों ने कबूतरी को बेबस किया। उसके हांथ पैर बांधे गये मॅुह में कपड़ा ठंूसा गया और ठाकुर साहब ने कामुकता-यौनिकता का बर्बरतापूर्वक प्रर्दशन करते हुये अपनी यौनतृष्णा संतुष्टि की। उसके बाद बलराम ने अपना बदला लिया उसका यौन मर्दन करते हुये कि हमसे शादी से इन्कार करती थी ‘कहती है कि कलुआ खुत्तड़ से मैं भला शादी करूूगी? मैं तो उस पर थूकूंगी भी नहीं। ले मैं शादी कर रहा हॅू बिना फेरों और शहनाई के। अब तुम पर कोई नहीं थूकेगा।‘इसके बाद बारी अब्दुल की लगती है, उसने यह कहते मर्दन किया कि ‘जरा सी छेड़छाड़ पर उसे हास्पिटल भर्ती होना पड़ा था। अब कौंन से हास्पिटल तू जायेगी? तीनों तृप्त हो चुके होते हैं। पुनीता के बंधन खोल दिये जाते है और उसे रेस्ट करने को छोंड़ दिया जाता है। वह पस्त और निढाल पड़ी है उसमें मरने की भी जान नहीं बची है। खून रिस रहा है। र्निवस्त्रता को ढकती ही है कि तभी सज्जन सिंह दाखिल होता है,‘ठाकुर साहब मेरा हिस्सा।‘ शिकार की जूठन पर तो सियार का हक होता ही है। ठाकुर साहब को कोई ऐतराज नहीं है, निपटो। बाज, कबूतरी पर दबे पांव बढ़ता है। खूली कबूतरी, बाज बन जाती हैं। असीमित ताकत पैदा होती है और सज्जन सिंह धड़ाम दूर जा गिरा और वह चीखती चिल्लाती बाहर को भागी।‘ अभी पुलिस के पास जाकर शिकायत करूंगी। सबको फांसी लगवांऊगीं। बाहर पहरेदार अब्दुल और बलराम ने फिर पकड़ा, तब तक ठाकुर साहब और सज्जन सिंह सबक सिखाने उसकी तरफ लपके। उसने एक जबरदस्त झटका दिया और अब्दुल से कलाई छुटाकर भांगी। चारों दरिंदे उसे पकड़ने के लिए, उसके पीछे भागे। वह जीना चढ़कर छत पर चढ़ी। ऊॅपर की छत खुली हुई थी, बाउन्ड्रीवाल नहीं थी। वह बेतहाशा भागती जा रही थी और वह छत पार कर गई गड़ाम से नीचे गिरी। नीचे उसका शरीर अन्तिम सांसें ले रहा था और ऊॅपर दरिंन्दे अट्टहास कर रहे थे। उसकी आखिरी सांसें भी बंद की गई। उसे ठिकाने लगाने का कार्यक्रम बना। चारों ने उसे जीप में लांदा और पांच कि0मी0 दूर एक नाले के सुपुर्द किया फिर सबने किसी को न बताने की कसम ली। एक स्वर में क्या कहा जाना है, यह तय किया और सभी अपने-अपने घर को रूखसत हुये। सज्जन सिंह को अन्त तक अफसोस रहा कि उसे उसका हिस्सा नहीं मिल पाया। ‘ उसकी किस्मत ही खराब है, उसने अपने आप को कोंसा।‘ 

पुुनीता उसी तरह ईजी चेयर पर झूल रही थी और वह पाषाण की तरह स्थिर। वह उठी उसने प्रदुम्न के गले में अपने बांहों का हार डाला उसके कंधे को पकड़कर एक सौ अस्सी डिग्री का कोण बनाते हुए उसे ईजी चेयर में बिठाया और चेयर के हत्थे पकड़कर उस पर झुकी और उसकी आॅंखों में अपनी आॅखें डाल दीं। पुनीता की आॅखों से एक प्रश्न उॅभरा और उसकी आॅखों से निकल कर प्रदुम्न की आॅखों में समा गया। उस प्रश्न ने उसके दिल-दिमाग ने हलचल मचा दी। उसे उसके प्रश्न का उत्तर देना है? धीरे-धीरे सब शान्त हो गयां। वह देर सुबह तक नींद के आगोश में उसी ईजी चेयर पर पड़ा रहा । 

जब से पुनीता गई है, नींद जरूर आ जाती है, परन्तु नींद जैसा कुछ भी नहीं होता है। वह निंद्रा-अनिंद्रा स्वप्न-दुस्वप्न और दिवास्वप्न के चक्रव्यूह में उलझकर रह गया हैं। उसने अपने आप को समेटा, सहेजा और अनिर्णय की स्थिति से बाहर आया। उसने उस अजीब, अद्भुत और विचित्र किन्तु सत्य को लिपि बद्ध किया और पोस्ट कर आया।

तीन दिन बाद पुलिस को पुनीता की लाश मिली क्षत-विक्षत करीब पांच कि0मी0 दूर नाले के पास झाड़ियों में उलझी हुयी। लाश की शिनाख्त हो चुकी थी, वह आसमानी रंग का सलवार-सूट पहने हुये थी, जो जरजर हो चुका था और बदरंग भी। ठाकुर रंजीत सिंह और ड्राइवर सज्जन ंिसह को गिरफ्तार कर लिया गया। पोस्ट मार्टम में सामुहिक बलात्कार की पुष्टि हुयी थी और उसे मार डाला गया था कि राज जाहिर न हो जाये। परन्तु ड्राइवर सज्जन सिंह वायदा-माफ गवाह बन गया था। सामुहिक बलात्कार एवं हत्या कांड का भंडाफोड़ हो गया था। पुलिस के युवा इंस्पेक्टर की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी कि उसने हफ्ते के भीतर ही केश को हल कर लिया था। उम्मीद की जा रही थी कि सभी को फांसी या आजीवन कारावास की सजा हो सकती हैं।

प्रदुम्न संतुष्ट था, उसने पुनीता के प्रश्न का उत्तर दे दिया था। पुनीता ने सबसे अपना हिसाब-किताब बराबर कर लिया था। वह गमगीन था, पुनीता अब शायद नहीं लौटेगी, अदेह भी नहीं। 

   



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