तोरपा में एक दिन
तोरपा में एक दिन
तोरपा एक आदिवासी बहुल क्षेत्र। अनजाना सा नाम। अनजानी सी जगह। कभी नाम सुनने में नहीं आता था। तोरपा के बारे में पता चला था जब बम्बई जैसे महानगर से सोफ़िया कॉलेज की आदिवासी प्रिन्सिपल , जो एक सिस्टर थीं ,वहॉं से ट्रॉंसफर होकर तोरपा आईं। लोग बाग छोटे शहरों से बम्बई की दौड़ लगाते हैं , और ये बम्बई छोड़कर स्वेच्छा से तोरपा आईं थीं शिक्षण कार्य के लिये। इससे हम बहुत प्रभावित हुए थे जब वे हमसे मिलने आईं। तब हमें पता चला कि उन्होंने अपनी फ़ील्ड पोस्टिंग तोरपा ली है, अपनी आदिवासी बहिनों की सेवा के लिये और आदिवासी बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिये।
हम रॉंची में वन विभाग में पदस्थापित थे। तब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था। रॉंची ,बिहार राज्य में था,उत्तरी छोटा नागपुर कमिश्नरी में, वन- विभाग का मुख्यालय था और बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी था। रॉंची के अन्तर्गत ही खूंटी प्रखंड आता था। खूँटी सबडिवीजन में ही तब तोरपा ब्लाक आता था। तोरपा का नाम जाना पहिचाना नहीं था। नई नई हमारी तब रॉंची की पोस्टिंग थी।
सिस्टर तोरपा में आदिवासी लड़कियों के आवासीय स्कूल की इंचार्ज होकर आईं थीं। मुंडा, हो,उराँव और संथाल लड़कियॉं आस-पास के गॉंवों से वहॉं पढ़ने आती थीं।वहीं रहकर पढ़ती थीं। वहीं लकड़ी के चूल्हे पर उनका खाना बनता था। तब गैस के चूल्हे का प्रचलन नहीं हुआ था, गैस नहीं आई थी। सिस्टर सरकारी रेट पर जलावन का इन्धन चाहती थी, जिससे स्कूल की आर्थिक मदद हो जाये। उन्हें जलावन बाज़ार से ख़रीदने में मंहगा पड़ता था।
काम तो शिक्षा में सहूलियत देने का था। इसलिये जो मदद वे चाहती थीं, उसे न देने का प्रश्न नहीं था।
सिस्टर ने हमको तोरपा आने का निमंत्रण भी दिया कि उनका स्कूल देखें और उनके द्वारा चलाया जा रहा अन्य कार्य भी देखें, जहॉं वे आर्थिक स्वावलम्बन हेतु मशरूम फ़ार्म भी चला रही थीं। हमने इसे सहर्ष स्वीकार किया। रॉंची के नज़दीक ही खूँटी और तोरपा थे। जीप से कोई डेढ़ घंटे का सफ़र था।
एक दिन सुयोग पाकर हमने तोरपा का प्रोग्राम बना लिया और खूँटी होते हुए तोरपा पहुँच गये घने वृक्षों की पंक्ति का अवलोकन करते हुए।चारों तरफ़ घने जंगलों से घिरी हुई यह जगह थी। महुआ, साल सखुआ, इमली, आम, करमा, कटहल,बेर, कुसुम , पलाश के वृक्षों से वन प्रांत आच्छादित था। प्राकृतिक सौन्दर्य भरपूर था। सुरम्य स्थली थी। लगता नहीं था कि ऐसे वन से भरपूर जगह में भी कोई शिक्षण व्यवस्था होगी।
तोरपा पहुँचने पर सिस्टर के साथ उनका स्कुल देखा। साफ- सुथरी सादी सी बिल्डिंग थी। बालिकाओं की पढ़ाई चल रही थी।
सिस्टर हमें अपना मशरूम फार्म दिखाने ले गईं, जो उन्होंने ही शुरू कराया था, उस जमाने में जब मशरूम का खाने में आज जितना प्रचलन नहीं हुआ था। सच पूछिये तो हमने इससे पहिले न मशरूम देखे थे , न मशरूम फार्म देखे थे। मशरूम से हमारा इतना ही परिचय था कि हमारे बगीचे में कभी कभी बरसात में झाड़ झंखाड़ के साथ कुछ कुकुरमुत्ते उग आते थे और उन्हें विषैले फ़ंगस कहकर माली उखाड़कर फेंक देता था। या कभी हमारे घर में नहाने के लकड़ी के पुराने पटरे पर कुछ छोटी फुंगी सी उग आती थी , जो उखाड़कर फेंक दी जाती थी। हमें यह भी नहीं पता था कि मशरूम खाने की कोई चीज होती है।उस जमाने में मशरूम का इतना नाम भी सुनने में नहीं आता था।
सिस्टर के साथ हमने मशरूम फार्म घूमकर देखा। एक बड़ा सा कमरा बनाया गया था, जिसमें मशरूम उगाये गये थे। कमरे में सूखे पेड़ के तने खड़े थे, जिन पर बड़ा-बड़ा सफ़ेद रंग का स्पंजी सा अर्ध गोलाकार क़रीब दस इंच तक का कुछ उगा हुआ था, सिस्टर ने बताया कि यही मशरूम है। हमने ऐसे मशरूम पहिले कभी नहीं देखे थे। एक एक तने पर इस तरह के बहुत से मशरूम उगे हुए थे। सिस्टर ने उनका नाम ऑयस्टर मशरूम बताया। और कहा कि “काफ़ी कम खर्चे में इनकी खेती हो जाती है। ये बहुत जल्दी बढ़ते हैं। भोजन का अच्छा स्रोत हैं। “
इससे पहिले हमने छोटे-छोटे गोल मशरूम ही देखे थे जो बरसात में ज़मीन में स्वयं उग आते थे, उनकी एक छोटी सी डंडी और ऊपर टोपी सी होती थी। या बच्चों की किताब में छत्रक बने देखे थे। यहॉं पहली बार ही ऐसे मशरूम देखे थे। जिनका चित्र आज तक ऑंखों के सामने बना हुआ है।
उन्होंने यह भी बताया-“ छात्राओं के भोजन के काम में ये आते हैं , विटामिन व पौष्टिक तत्त्व इनमें भरपूर हैं। इनकी बाज़ार में भी बिक्री कर देते हैं, इसकी आय से आर्थिक सहायता स्कूल की हो जाती है। “
उस जमाने में आदिवासी सिस्टर की यह सोच बहुत प्रगति वादी थी। मशरूम उगाने का सारा कार्य वहॉं की आदिवासी महिलाओं के हाथ में था। स्कूल की शिक्षिकायें भी सब आदिवासी थीं। स्वच्छता का पूरा ध्यान था। उनका पहनावा भी सीधा- सादा साड़ी ब्लाउज़ था। साड़ी भी वहीं खड्डे की बुनी हुई थी। आत्मनिर्भरता का अच्छा उदाहरण था।
सिस्टर ने वहॉं जंगल में मंगल कर रखा था। घने जंगलों से ढके तोरपा में उन्होंने नाम ख्याति से दूर अच्छा शिक्षा संस्थान चला रखा था और आदिवासी बालाओं को अच्छी शिक्षा के साथ - साथ हुनर का भी प्रशिक्षण दे रही थीं। इस तरह समाज सेवा का भी अनुपम काम वहॉं हो रहा था, जहॉं सुविधाओं का भी अभाव था।
महिलाओं में शिक्षा का चॉंदना फैले तो उनके कार्यक्षेत्र का विस्तार होता है, वे केवल चौके- चूल्हे तक सीमित नहीं रहतीं। शिक्षा से देश की मुख्य धारा से भी वे जुड़ती हैं। वे अपने सपनों को ऊँची उड़ान दे सकती हैं। वे सपने देख भी सकती हैं और उन्हें पूरा भी कर सकती हैं।
ऐसा लगता था कि तिमिर में छिपे तोरपा में रोशनी का झरना फूट पड़ा था। हर हाथ को काम और हर हाथ को शिक्षा का लक्ष्य लेकर वे चल रहे थे। उनकी कल्याण कामना करते हुए हम वहॉं से अभिभूत होकर उन्हें धन्यवाद दे नया आशा विश्वास लिये लौट आये।
