रक्षक
रक्षक
ओह देश के वीर जवान सुनो,
अब तो अपने आलस से जगो,
मंदिर-मस्जिद के पचड़ों से,
आगे बढ़के करबद्ध उठो।
वो चीख़ जो तुमने सुनी नहीं,
वो चीख़ है जा चीत्कार बनी,
अब तो भ्रम की आँखें खोलो,
कुछ ना कुछ तो मुँह से बोलो।
मर्घट सा बना यह विश्व भरा,
निर्जीव नपुंसकों से जा भरी धरा,
नौ दिन देवी को भोग चढ़ा,
दसवे दिन उसका भोग किया।
क्यूँ नहीं काँपते हाथ तेरे?
कैसे निद्रा का पहरा है?
जो सोच ना देख ना सुन ही सके,
क्या समाज यह इतना बहरा है?
जिन दिलों में कहते राम बसे,
क्यूँ सिया हरण रोके ना रुके?
धिक्कार तुम्हारे पौरुष पे,
जो धर्मविमुक मनमाद चले।
जाओ जाओ कुछ और करो,
कुछ और कहो, कुछ और सुनो,
फिर ना कहना धरती माँ है,
और तू वीर जवान, रक्षक इसका।