शहर और देहात
शहर और देहात
ले आये डिग्री तुम बहुत पढ़ लिखकर,
हम गाँव में पलते रहे निरा अनपढ़।
बने कहाँ इंसान कोई हमसे बेहतर,
है हममें तुम में क्या मौलिक अंतर।
हम करते झगड़ा मकई और मचानों पे,
और तुम्हारी फ्रिज टी.वी. समानों पे।
हम लड़ते, आपस में ही सब सुलझाते,
तुम करते एग्रीमेंट, मेडीएसन अपनाते।
हमारे तन पे कपड़े नहीं कि पैसे कम हैं,
और तुम्हारे कपड़ों से तो दिखे बदन है।
देह दिखने से प्यार कोई बढ़ नहीं जाता?
देख हमारा प्यार जाने हृदय की भाषा।
उम्र हमारी खपती एक मकान बनानें में,
और तुम्हारी गार्ड रखकर बचाने में।
अंतिम यात्रा में तुम्हें जो मिलता साथ,
हम भी तो जाते अपने कंधों के हाथ।