ग़ज़ल
ग़ज़ल
हर क़दम पर क्यूँ सहारा चाहता है वो,
भँवर में घर बनाया है किनारा चाहता है वो.
एक बार था टूटा, है अब तलक घायल,
जाने क्यूँ तोड़ना दिल, दुबारा चाहता है वो.
उसे मालूम है मैं बेज़ुबां हूँ, कह नहीं सकता,
सर हाँ में हिला दूँ बस, इशारा चाहता है वो.
हुनर उसमें ग़ज़ब का है लगता फ़रिश्ता है,
बनाना एक पत्थर को, सितारा चाहता है वो.
जब हो रुख़्सती तो 'अपने' सारे साथ हों ‘रंजन,
फ़क़त आख़िरी एक ख़ुश-नज़ारा चाहता है वो.
रुख़्सती: बिदाई, फ़क़त: सिर्फ