एक बाल मजदूर की व्यथा
एक बाल मजदूर की व्यथा
जब उसकी उम्र के बच्चे,
खिलखिला कर हँसते हैं,
तब वह कोने में बैठ सिसकता है,
वेदना भरी ह्रदय से हर रोज उसके,
उदगार उफनता है।
पर, ना जाने किस,
भय से शांत हो जाती है,
वह तपिश,
क्या मजबूरियों की आँधी,
साथ में पानी लेकर आती है ?
और उफनते अंगार को,
ठंडा कर जाती है।
नन्ही-सी उम्र में,
जिम्मेदारियों के बोझ से,
वह कुछ दबता गया,
कट जाए यह जीवन बस,
इस खातिर हर आग सहता गया।
पर गर्म तवे पर सिकते हाथ उसके,
आँसू भरे आँखों से,
हर दास्ताँ व्यक्त करते हैं,
नहीं है जीवन में मेरे अब रंग,
शायद बुझे-बुझे शब्द,
यही होठों से निकलते हैं।
व्यक्त नहीं कर पाता वह अपने भावों को,
अव्यक्त ही रह जाती है उसकी व्यथा,
जाने किस भय से वह अक्रांत है,
दिल में है हज़ार द्वंद,
पर बाहर से शांत है।
मजबूरियाँ ही है जीवन में उसके,
उसकी स्थिति हर हाल बयाँ करती है,
अपने बच्चे को यूँ ही पिसता देख,
उसकी माँ खड़ी चौखट पर रोती है।
वह श्याम-तन, झुलसता बदन,
इतना बोझ उठाता है,
पर किस अवयक्त भाषा की,
व्यक्त परिभाषा से डरता है ?
उसके उम्र के बच्चे स्कूल जाते हैं,
पर वह कारखानों-भट्ठियों में जाता है,
हर दिन दस पैसे पा,
खुद को धन्य समझता है,
नहीं जानता वह अपने अधिकारों को,
कैसी यह निर्ममता है।
मंच पर खड़े सौदागर,
हर साल बोली लगाते हैं,
पर उसका एक अंश भी,
उसके हिस्से नहीं आता है।
सत्ता में जब-जब आते हैं नेता,
कहते हैं तुम्हें मिलेगा न्याय,
पर उसकी आशा भी,
अब धूमिल दिखती है,
गले में है फंदा,
हर रोज होता अन्याय है।
किसे पढ़ायें ? किसे बताएँ ?
अपने अन्दर की व्यथा को,
होंठ सिले हैं उसके,
नहीं जानता वह हमारी भाषा को,
भूख से अंतड़िया उलझती जा रही,
सिकुड़ रहा शरीर उसका।
क्यूँ नहीं बदल रही,
तकदीर उसकी ?
हर रोज स्याह होती जा रही,
व्यथाओं की तस्वीर उसकी।