शायरी
शायरी
मुसलसल इल्मियत थी हमें की,
ना दे नाम इस रिश्ते को,
पर तन्हाई ने जाकर दिल के दरवाजे खोल दिए!
कमज़ोर पड़ गये हम भी, जब,
अपनी चाहतों से समझोता कर लिया,
खुशियाँ नसीब ना हुई फिर भी, बस,
बढ़े कदम, अफ़सोस बन के रह गये!
क़ैद हुए थे उस पिंजरे में, जिसके दरवाजे खुले थे,
उड़े उसी दिन हम जब,
"कोई गिला नही है तुमसे", वो हमें कह गये!
चल पड़े वो भी कुछ एहसास दिलाके हमें,
कुछ ऐसी रही दास्तान की,
वो बस ये शायरी बन के रह गये!!