ज़िद
ज़िद
नितिन ने जब से होश संभाला उसने बहुत से मौकों और आयोजनों में बच्चों और बड़ों को मंच पर जाकर पुरस्कार या प्रशस्ति-पत्र लेते देखा था। बचपन से उसके लिए यह बड़ा कौतूहल का विषय था , धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगा कि यह उन लोगों को मिलता है जो किसी भी क्षेत्र में कुछ विशेष करते हैं जैसे पढ़ाई में अव्वल, खेल कूद या किसी प्रतियोगिता में विशेष स्थान आदि। अब उसे यह भी समझ में आ रहा था कि क्यों माँ और पिता जी उसे बार बार पढ़ने के लिए कहते हैं और जब उसके नंबर कम आते हैं तो डांटते भी हैं। शायद उसके माँ पिताजी भी चाहते थे कि उसे इस तरह सम्मान मिले। अब उसके अंदर कुछ ऐसा करने की चाहत जागने लगी जिससे उसे किसी तरह कोई पुरस्कार मिले। बहुत सोचने समझने और कोशिश करने के बाद यह तो समझ आ गया कि पढ़ाई के रास्ते तो संभव नहीं है।
कुछ ही दिनों में खेल कूद प्रतियोगिता शुरू होने वाली थी जिसके लिए नाम लिखे जा रहे थे। अपनी यानि पांचवीं कक्षा के लिए जितने भी खेलों में नाम लिखा सकते थे सबमें लिखा दिया क्योंकि संभावनाओं में कोई नहीं छोड़नी थी। सभी खेलों में भाग लिया तो अभ्यास में भी जाना होगा इस चक्कर में पढ़ाई का और भी सत्यानाश हो गया लेकिन अभ्यास में कोई कमी नहीं छोड़ी। कुछ ही समय में नतीजे सामने थे मगर सच कहा जाये तो बहुत उत्साहवर्धक नहीं थे और कहीं चौथे तो नहीं पांचवें स्थान से संतोष करना पड़ा। दोस्तों ने आगे बढ़कर सांत्वना दी जिसे सधन्यवाद स्वीकार किया। अब स्थिति यह थी कि एक तरफ तो यहाँ इतने प्रयासों के बाद भी असफलता हाथ लगी दूसरी ओर पढ़ाई की हालत भी पतली हो गई थी जिसके कारण घर पर दुर्दशा तय थी, ये जानते हुए भी हताशा का नामो-निशान नहीं था क्योंकि जहाँ लोग नितिन की हार देख रहे थे वहीं वो खुद यह समझने की कोशिश में लगा था कि हार हुई क्यों और अगला कौन सा रास्ता सफलता की ओर ले जाएगा।
खैर जल्दी ही मतलब अगले वर्ष ही उम्मीद की एक किरण फिर दिखी।
छठी कक्षा में जब नये विद्यालय में पहुंचे तो वहां का माहौल बहुत अलग था। नया विद्यालय पूरी तरह हिन्दी भाषी और सरकारी था कुछ हद तक यह अच्छा भी था क्योंकि इसी बहाने अंग्रेजी नामक राक्षसी से कुछ समय के लिए बचाव हो गया , अब यहाँ दोबारा अंग्रेजी को शुरू से मतलब वर्णमाला से पढ़नी थी। नया सत्र शुरू होते ही पता चला कि वाद विवाद और लेखन प्रतियोगिता होने वाली थी वो भी हिन्दी में, ये सही मौका जान पड़ता था। इस बार पिछली बार की तरह गलती नहीं की बल्कि एक ही प्रतियोगिता में जोर आज़माइश का निर्णय लिया और लेखन प्रतियोगिता में हिस्सा ले लिया। तरह तरह की किताबें पढ़ी कुछ दोस्तों से भी राय ली क्योंकि प्रतियोगिता में उसी समय पर विषय दिया जाना था और उस पर लिखना था। प्रतियोगिता का दिन भी आ गया और विषय मिला "दैनिक जीवन में विज्ञान का महत्व"
खूब आराम आराम से ध्यान लगा कर एक अच्छा सा निबंध लिखा। समय सीमा से पहले ही अपना निबंध जमा करा दिया। तीन घंटे के बाद परिणाम घोषित होने थे इसलिए नितिन भी सब बच्चों के खेलने चला गया। परिणाम का समय आ गया सभी फिर से जमा हो गये।
परिणाम सूचना पट्ट पर लगा दिया गया था। परिणाम देख कर यह तो पता चल गया था कि नितिन को तीसरा स्थान मिला था अब यह तय होना था कि इस बार मंच पर पहुंचने की तमन्ना पूरी होगी या नहीं। प्राध्यापक महोदय ने बताया कि कुल तीस लोगों ने भाग लिया है जिसमें दो अनुभाग यानी कक्षा छह से नौ और दस से बारह में तीन तीन प्रतियोगियों को क्रमशः पहले दूसरे व तीसरे स्थान पर रखा गया है और इन सभी छह प्रतियोगियों को मंच पर बुलाकर पुरस्कृत किया जाएगा। इस घोषणा ने तो जैसे जोश भर दिया क्योंकि सालों के इंतजार के बाद आज तमन्ना पूरी होने वाली थी।
फिर अचानक दोबारा घोषणा हुई कि कुछ कारणों से प्राध्यापक महोदय को कहीं जाना था इसलिए वो दोनों अनुभागों के पहला स्थान पाने वालों को ही मंच पर पुरस्कार दे पाएंगे बाकी लोगों को पुरस्कार अलग से दिया जाएगा। लक्ष्य के इतना करीब पहुंच कर यूँ रोक लगने से एक बार को जोरदार झटका लगा लेकिन मायूस होने की फितरत तो नितिन की कभी थी ही नहीं। अब नये सिरे से दोबारा लक्ष्य साधने की तैयारी शुरू कर दी। अगले छह साल अलग अलग तरीके से कोशिश की मगर सफलता जैसे छू कर निकल जाती थी। बारहवीं पास कर ली, पिताजी की इच्छानुसार इंजीनियरिंग की तैयारी शुरू की और साथ ही महाविद्यालय में विज्ञान विभाग से स्नातक में भी प्रवेश ले लिया।
अब चीजें बदल चुकी थीं बचपन खत्म हो गया था ,सोच का दायरा बढ़ गया था लेकिन एक चीज जो अब भी वैसी ही थी वो था जुनून, लक्ष्य और उसे हासिल करने की ज़िद। अब तक बहुत सारे तरीके अपनाने और फिर भी सफल न हो पाने के बाद कुछ बातें जो समझ में आईं वो थीं,
लक्ष्य तक पहुंचने के बहुत से रास्ते हो सकते हैं मगर आगे जाने के लिए केवल एक ही रास्ता चुनना होगा।
हो सकता है मेरे लिए मेरा किया काम सबसे अच्छा हो मगर वास्तव में उसे पहचान तभी मिलती है जब काम सबकी नज़र में सबसे अच्छा हो।
प्रथम स्थान की प्राथमिकता है बाकी केवल विकल्प है।
अभी भी यह तय नहीं हो पा रहा था कि जो कमी रह गई है उसे कैसे पूरा किया जाये और अब अगला कदम क्या हो ?
नितिन और उसका मित्र प्रवीण शाम के समय में नितिन के कमरे में बैठे बातें कर रहे थे।
नितिन: यार हर तरह से कोशिश करके देख लिया मगर जैसे मेरी किस्मत में मंच पर जाकर ईनाम लेना है ही नहीं।
प्रवीण: ऐसी बात नहीं है भाई, क्या है न हर एक चीज का अपना एक वक्त होता है और उससे पहले कुछ नहीं होता।
नितिन की माताजी कमरे में आते हुए: बिल्कुल सही बात है समय से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को नहीं मिलता।
नितिन: आप दोनों के कहने का मतलब है कि मैं किस्मत और सही समय के इंतजार में बैठा रहूँ। नहीं मैं ये किस्मत वगैरह नहीं मानता, मैं सफल नहीं हो पा रहा हूँ तो उसकी वजह सिर्फ यह है कि मैं शायद सही दिशा में प्रयास नहीं कर रहा हूँ या ये कह लो कि सही दिशा मिल नहीं पा रही है।
माता जी: वैसे बात तुम्हारी भी सही है कोशिश करते रहना चाहिए और नये रास्ते ढूंढने चाहिए क्या पता कौन सा रास्ता सही दिशा की ओर ले जाए।
प्रवीण: भाई तुम्हें और कुछ आए न आए मगर लोगों को समझाना अच्छे से आता है, लेकिन समस्या ये है कि समझाने के लिए मंच पर जाकर पुरस्कार नहीं मिलता।
एक बात और है ये जरूरी तो नहीं है कि मंच पर पुरस्कार लेने ही जाया जाए पुरस्कार देने भी तो जा सकते हैं। कुछ ऐसा करो कि तुम्हें पुरस्कार देने के लिए ही बुला ले कोई।
नितिन उसकी बात पर हंस दिया लेकिन उसके जाने के बाद जब गंभीरता से उसकी कही बातों पर गौर किया तो उसे यही रास्ता सही लगने लगा और वो इस दिशा में सोचने लगा। अगले दिन जब प्रवीण आया तो नितिन ने अपने दिल की बात रखी।
नितिन: कल तुमने एक बात कही थी, याद है ?
प्रवीण: कौन सी बात, मैं तो बहुत कुछ कहते रहता हूँ , तुम कौन सी बात पकड़ लिए ?
नितिन: वही मंच पर जाकर पुरस्कार देने वाली बात।
प्रवीण (कुछ सोच कर) : क्या बात कर रहे हो यार, मैं तो ऐसे ही मजाक कर रहा था। ऐसा कैसे संभव है , हम लोग ठहरे मामूली लोग हमें कौन बुलाएगा पुरस्कार देने के लिए?
नितिन: यही तो बात है, हमें भी पता है कि हमें कोई नहीं बुलाएगा मगर हम तो हमें बुला सकते हैं।
प्रवीण: मतलब ?
नितिन: मतलब ये कि हम ही कोई ऐसा कार्यक्रम करते हैं जिसमें कुछ प्रतियोगिताएं हों और फिर जीतने वाले को पुरस्कार हम देंगे।
प्रवीण: जितना सोच रहे हो उतना आसान है नहीं। इस तरह के कार्यक्रम करवाना कोई छोटी मोटी बात नहीं है, बहुत सारे लोग और पैसे चाहिए। अगर दिमाग में कोई योजना है तो बताओ, मैं तो हमेशा साथ हूँ ही। "
माताजी चाय लेकर कमरे में आते हुए: क्या ख्याली पुलाव पक रहा है ?
नितिन: कुछ नहीं बस ऐसे ही बातें कर रहे हैं।
माता जी कमरे में चाय रखकर चली गईं।
नितिन: पूरी योजना तो अभी नहीं बनाई मगर जो सोचा है वो बता देता हूँ,
हम कुछ और लोगों को अपने साथ जोड़ कर एक गैर सरकारी संगठन बनाते हैं और संगठन एक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता करवाएगा जिसके विजेताओं को पुरस्कार स्वरूप एक कप और प्रशस्ति-पत्र दिया जाएगा।
संगठन के उदघाटन समारोह में प्रथम, द्वितीय और तृतीय विजेता को क्रमशः मुख्य अतिथि, संगठन प्रमुख यानी मैं और सह प्रमुख यानी तुम पुरस्कृत करेंगे। शुरू में थोड़ा खर्च करके काम शुरू करना पड़ेगा और बाद में सदस्यता शुल्क और प्रायोजकों की मदद से काम चल जाना चाहिए।
प्रवीण: पहली बात कि कौन लोग हमारे साथ जुड़ना चाहेंगे और वो भी सदस्यता शुल्क के साथ, फिर उसके बाद हम ठहरे नये लोग कौन प्रायोजक हमें पैसा देगा। सुनने में तुम्हारी बात अच्छी लग रही है मगर हकीकत में ये संभव नहीं लगता।
नितिन: संभव तो है मगर मुश्किल भी है। एक बार कोशिश करने में हर्ज़ तो नहीं है, हो सकता है काम बन ही जाए। सबसे पहले ऐसे लोग ढूंढने होंगे जो हमारे साथ जुड़ने के लिए तैयार हों।
प्रवीण: बात तो सही है कि कोशिश करने में क्या हर्ज़, तो फिर "कल करे सो आज कर" , सबसे पहले संगठन का नाम निर्धारित करते हैं। कोई नाम हो दिमाग में तो बताओ।
नितिन: नाम तो कुछ भी रख सकते हैं, "सहज क्लब" कैसा रहेगा ?
प्रवीण: थोड़ा अजीब सा लग रहा है , पहली बार ऐसा कुछ काम करने जा रहे हैं तो नाम किसी भगवान के नाम पर रखते हैं। मेरी राय में शंकर भगवान का नाम शुभ रहेगा। "सुंदरम क्लब" अच्छा रहेगा अगर तुम्हें ठीक लगता हो तो।
नितिन: मुझे कोई एतराज नहीं है, चलो अभी के लिए यही नाम रखते हैं।
अगले चरण में सदस्यता अभियान शुरू हुआ और अपेक्षा के विपरीत तेजी के साथ लगभग पंद्रह लोग जुड़ गये। पहली बैठक में सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता की योजना पर बात हुई और विचार विमर्श में निकल कर आया कि पहले संगठन को पंजीकृत करना चाहिए जिससे कोई कानूनी अड़चन न आये।
पंजीकरण कार्यालय में जाकर पता चला कि क्लब का पंजीकरण फैजाबाद में न होकर लखनऊ में होगा। ये नई समस्या खड़ी हो गई लेकिन वहीं के एक कर्मचारी ने समाधान भी बताया कि अगर क्लब के बजाय संस्था (सोसाइटी) पंजीकृत की जाए तो यहीं काम बन सकता है। नाम में बदलाव किया गया और आखिरकार हमें हमारी संस्था का नाम मिला "सुन्दरम सोसाइटी क्लब "।
पंजीकरण हो गया और प्रतियोगिता की तैयारी की गई। प्रतियोगिता सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई और उसी दिन घोषणा कर दी गई कि आने वाली 31 दिसम्बर को संस्था का उद्घाटन समारोह होगा और विजेताओं को पुरस्कार दिया जाएगा।
फिर आया नितिन की जिंदगी का एक बहुत बड़ा दिन, 31 दिसम्बर 1998। घमासान तैयारियां और बहुत सारा रोमांच, पूरा नरेन्द्रालय खचाखच भरा था। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद मुख्य अतिथि जिलाधिकारी महोदय ने प्रथम पुरस्कार दिया और फिर घोषणा हुई द्वितीय पुरस्कार की और उसे देने के लिए नाम पुकारा गया "माननीय संस्था अध्यक्ष महोदय श्री नितिन श्रीवास्तव जी कृपया मंच पर पधारें" ये वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए बचपन से तड़प रहा था, आज बरसों का सपना साकार हुआ नितिन मंच पर पहुंचा और जैसे ही पुरस्कार देने बढ़ा तालियों और लोगों के शोर को सुनकर ऐसा लगा जैसे अचानक ही बहुत बड़ा आदमी हो गया।