ज़िद - कहानी -
ज़िद - कहानी -


जोरावर के घर में शादी के सात साल बाद, मंदिरों में बड़ी पूजा अर्चना और देवी देवताओं की धोक के बाद आखिरकार एक कन्या पैदा हो गयी। परिवार में कोई खास खुशी का माहौल नहीं था। सब कोई लड़का होने की आस लगाये बैठे थे। वैसे भी गाँव देहात में अभी भी छोरी होने का कोई उत्सव नहीं माना जाता। कुछ लोग तो अभी भी लड़की होते ही मार देते हैं।
लेकिन यहाँ मामला दूसरा था। एक तो शादी को सात साल हो चुके थे अतः लड़के का परिवार दुल्हिन में दोष निकाल रहे थे वहीं दूसरी ओर दुल्हिन वाले कह रहे थे लड़के में दम नहीं है। मर्दानगी की कमी है। खैर अब इन बातों पर विराम लग चुका था। अब माँ बाप में नवजात बच्ची के नाम को लेकर रस्साकशी चालू हो गयी। अंत में दादी की चली और उसका नाम निकाला कमला जो धीरे धीरे कमली में परिवर्तित हो गया।
उस ज़माने में नारी शिक्षा का अधिक जोर नहीं था। बस दो चार अक्षर लिखना और चिट्ठी पत्री बाँचना आना चाहिये। पर जब कमली स्कूल में भर्ती हुई तो उसने तो तहलका मचा दिया। वह तो हर कक्षा में प्रथम आने लगी। बिना किसी टूशन और अन्य मदद के।
परिवार में भी कोई ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। साधारण सा परिवार था। लेकिन लड़की की प्रतिभा देख कर सब दंग थे। घर की माली हालत देख कर और खानदानी परिपाटी के चलते उसे अधिक पढ़ाने के पक्ष में कोई नहीं था परंतु उसका भाग्य जोर मार रहा था। पाँचवीं कक्षा में जिला स्तर के बोर्ड में प्रथम आने पर सारी फ़ीस माफ़ और ऊपर से सरकारी वजीफ़ा मिलना चालू हो गया। परिवार की पौ बारह हो गयी।
पहली बार गाँव की किसी लड़की का नाम और फोटो अखबार में छपा था। समाज और देहात में परिवार की इज़्ज़त बढ़ने लगी। धीरे धीरे समाज की ओर से भी परिवार को आर्थिक मदद मिलने लगी।
उन्हीं दिनों गाँव के सरपंच दीनानाथ का छोरा त्रिलोक भी उस कमली की कक्षा में ही था। ऐसे तो वह भी पढ़ाई में तेज़ था मगर कमली से उन्नीस ही था। लेकिन उसमें सरपंच की औलाद होने के नाते जो ठसक थी उस वजह से कमली से धौंस में मदद लेता रहता था। कमली सीधी सादी छोरी थी इसलिये गाँव नाते उसे मदद कर देती थी।
सरपंच दीना नाथ रसूखदार आदमी था। पैसे की भरमार थी। राजनैतिक पहुंच भी थी। अगले चुनाव में विधायक का दावेदार था। इसलिये गाँव में दबदबा होना तो लाज़िमी था।
उधर कमली ने मैट्रिक और इंटर की परीक्षायें पूरे राज्य में प्रथम श्रेणी और प्रथम पोजीशन में पास की। अतः मैरिट के आधार पर डॉक्टरी की पढ़ाई के लिये सरकारी खर्चे पर चयन हो गया। परिवार तो फूला नहीं समा रहा था।
उधर सरपंच दीनानाथ को एक झटका लगा कि गाँव में सबसे पहले किसी दूसरे का बच्चा मैडीकल के लिये चुना गया। सरपंच ने इसे प्रतिष्ठा का विषय बना लिया। भाग दौड़ शुरू कर दी। अंततः सरपंच ने भी अपने छोरे त्रिलोक का दाखिला उसी मैडीकल कालेज में डोनेशन देकर करा दिया। अब दोनों बच्चे शहर के एक ही कॉलेज में डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। दोनों अलग अलग छात्रावास में रह रहे थे। बस फ़र्क केवल इतना था कि कमली का सारा खर्चा सरकार उठा रही थी और त्रिलोक अपने पिता के पैसे से पढ़ रहा था। कमली वहाँ भी अव्वल आ रही थी। उसकी लगन, शालीनता और शिक्षा परिणाम से समस्त कॉलेज प्रशासन खुश था।
इसी माहौल के चलते त्रिलोक ने अपने पिता की सरपंची के सब्जबाग दिखाने शुरू कर दिये। धीरे धीरे कमली की मासूमियत का फ़ायदा उठाते हुए एक दिन त्रिलोक ने कमली से प्यार का इज़हार कर दिया। शुरू शुरू में कमली ने सख़्ती से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। लेकिन निरंतर त्रिलोक के बढ़ते प्रयासों और चिकनी चुपड़ी बातों में आकर कमली भी मन ही मन उसे चाहने लगी। त्रिलोक ने उसे आश्वासन दिया कि हम दोनों शादी कर लेंगे तथा गाँव में एक अस्पताल खोल कर दोनों उसे संभालेंगे। गाँव में अस्पताल खोलने का सपना तो कमली भी देखा करती थी लेकिन उसकी आर्थिक विपंन्नता आड़े आ रही थी। त्रिलोक के वादों ने उसके सपने में पुनः नये पंख लगा दिये। फिर भी डरते डरते कमली ने शंका जतायी कि तुम्हारे पिता इस बेमेल रिश्ते के लिये राजी नहीं होंगे क्योंकि हम दोनों का सामाजिक और आर्थिक स्तर भिन्न है और सबसे बड़ी बात जाति भी अलग है। त्रिलोक ने उसे ढांढस बंधाया कि आजकल जाति पांति कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। साथ ही यह भी समझाया कि एक पढ़ी लिखी और डाक्टर लड़की को कौन बहू बनाने से मना करेगा। अगर इसके बावज़ूद भी बापू नहीं मानेंगे तो हम कोर्ट में शादी कर लेंगे। कमली भी उसकी बातों के सम्मोहन में बंधती चली गयी।
और जैसा कि अमूमन दो युवा दिलों के बीच होता है वह सब कुछ कमली और त्रिलोक के बीच भी स्थापित हो गया। सारी सीमायें टूट गयीं। समस्त मर्यादाओं को ध्वस्त करते हुए वे उस मुकाम पर जा पहुंचे जो समाज और धर्म के नाम पर अनुचित और पाप कहलाता है। लेकिन वे दोनों ही अपने भविष्य को लेकर निश्चिंत थे अतः बिना कुछ सोचे विचारे अपनी स्वच्छंदता के घोड़े पर सवार उड़े जा रहे थे। उनकी इस स्वेच्छाचारिता को झटका तब लगा जब कमली गर्भवती हो गयी। और उसने शादी के लिये दबाव बनाना शुरू किया। उसकी भी मजबूरी थी। त्रिलोक ने गर्भ गिराने का प्रस्ताव रखा लेकिन कमली ने इस सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया। शायद उसे इस बात का आभास था कि एक बार ऐसा किया तो यह एक परंपरा बन सकती है। और त्रिलोक को परखने का मौका भी हाथ से जाता रहेगा। अतः वह अपने निर्णय पर अडिग बनी रही। अब त्रिलोक के सामने एक ही रास्ता था कि अपने परिवार से इस बाबत बात करे।
उधर सरपंच को भी इस किस्से की उड़ती उड़ती भनक लग चुकी थी। वह अपने बेटे की शादी किसी बड़े खानदान में करके एक मोटी रकम दहेज़ के रूप में लेना चाह रहा था ताकि अगले साल होने वाले चुनाव का खर्चा निकल सके। इसी बीच त्रिलोक का एक बड़ा अच्छा रिश्ता आ गया। वह परिवार त्रिलोक को आगे की पढ़ाई के लिये विदेश भेजने के साथ साथ मुंह मांगा दहेज भी दे रहा था। सरपंच ने बिना त्रिलोक की राय जाने रिश्ता मंजूर कर लिया। और एक छोटा सा प्रीतिभोज का कार्यक्रम भी बना लिया। उसी दिन इत्तफ़ाक से त्रिलोक भी गाँव पहुंचा। वह अपने और कमली के संबंधों को लेकर बात करने गया था। लेकिन वहाँ की स्थिति देखकर उसे इस बात का अवसर ही नहीं मिला। इस कार्यक्रम में त्रिलोक की उपस्थिति से गाँव एवम घर वालों ने यह समझ लिया कि उसे यह रिश्ता मंज़ूर है।
इसमें कहीं न कहीं त्रिलोक में साहस की कमी स्पष्ट उजागर हो रही थी। त्रिलोक अनमने मन से और बुझे हुए हृदय से शहर लौट गया। पिता के दबंग व्यक्तित्व का वह सामना नहीं कर सका। अब वह एक विचित्र दुविधा में फंस चुका था। वह एक दोराहे पर खड़ा था। अब वह प्यार और परिवार के बीच ऐसा फंस चुका था कि उसका जो भी निर्णय होगा वह एक पक्ष को तो निश्चय ही निराशा के गर्त में ढकेल देगा। काल चक्र तेजी से घूम रहा था। उसने जान बूझकर अब कमली से नज़रें चुराना शुरू कर दिया था। क्योंकि वह उसका सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। परंतु ऐसे अधिकाँश मामलों में पीड़ित पक्ष स्त्री पक्ष ही होता है और यहाँ भी वही हुआ। त्रिलोक दबे पाँव विदेश चला गया।
त्रिलोक के विदेश जाने की बात भी कमली को गाँव जाने पर पता चली। उसे यह भी पता चला कि उसका रिश्ता भी तय हो गया है। कमली ने अपना माथा पीट लिया। अपनी व्यथा को उसने अपनी माँ से साझा कर दुख को किसी हद तक कम करने की कोशिश की। लेकिन माँ की प्रतिक्रिया ने उसका दर्द और बढ़ा दिया। माँ भी इसी विचारधारा को बल दे रही थी कि इस गर्भ से मुक्ति ले लो। लेकिन कमली तो किसी और ही मिट्टी की बनी हुई थी। वह टस से मस नहीं हुई।
बात का बतंगड़ बनने लगा। कमली के परिवार ने सरपंच से कमली के भविष्य को लेकर कर बद्ध विनती की लेकिन सरपंच तो अपनी महत्वाकांक्षाओं को लेकर सातवें आसमान में उड़ रहा था। अतः कमली के परिवार को दुत्कार कर भगा दिया। समाज के कुछ लोगों ने पंचायत बुलाने की राय दी लेकिन वहाँ भी सरपंच का दबदबा था।
अब कमली के घर वालों ने दूसरे पहलू पर भाग दौड़ शुरू की। वे कमली की अपने समाज में शादी के प्रयास करने लगे। लेकिन बात नहीं बनी। उसमें मुख्य बाधा बनी कमली की उच्च शिक्षा, उसका गर्भवती होना तथा उसके द्वारा शादी का विरोध करना। हार थक कर परिवार ने भी हथियार डाल दिये और कमली को भगवान भरोसे छोड़ दिया।
कमली पुनः शहर वापस चली गयी और अपनी एम डी की शिक्षा जारी रखी। वहीं एक स्थानीय सरकारी चिकित्सालय में उसे चिकित्सा प्रभारी का कार्यभार भी मिल गया। इसी बीच उसने एक बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम आलोक रखा। अस्पताल में बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र पर पिता का नाम त्रिलोक लिखाया गया। बच्चे की देखभाल के लिये उसने एक आया भी रख ली। उधर त्रिलोक गाँव आकर गुपचुप शादी करके पुनः विदेश चला गया।
जैसे ही कमली को एम डी की डिग्री मिली उसने अपनी सारी डिग्रियां गिरवी रखकर बैंक से बड़ी रकम कर्ज लेकर गाँव में अस्पताल बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया। जिस गति से उसने इस कार्य की देखरेख की साल भर के अंदर अस्पताल तैयार हो गया। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने उदघाटन किया। भरपूर सरकारी मदद का आश्वासन भी दिया। सरपंच को भी आमंत्रित किया गया था। वह यह देख कर अचंभित और चिंतित था कि अस्पताल का नाम "त्रिलोक चिकित्सालय" रखा गया था।
मेरी कहानी "ज़िद" एक ऐसी लड़की की कहानी है जो समाज के स्थापित कट्टर पंथी रीति रिवाजों के खिलाफ खड़े होने का साहस करती है। वह अपनी प्रतिभा और लगन से वह स्थान प्राप्त करती है जिसकी उसने ज़िद कर रखी थी।