यात्रा
यात्रा
मानव को उसका असली रूप दर्पण ही नहीं दिखाता। बल्कि उसके जीवन में अनायास ही ऐसा कुछ घटित हो जाता है जिसे वह सम्पूर्ण जीवन भूल नहीं पाता।
मैं भी रोजाना की तरह अपने ऑफिस जाने की जल्दी में था, कहीं देर हो जाने पर बॉस की डांट न झेलनी पड़े।
बस इसी भागम- भाग में जैसे - तैसे प्लेटफार्म पहुंचा ।
लेकिन
आज प्लेटफार्म का दृश्य बहुत विदारक था। मैंने देखा कि एक व्यक्ति जिसके हाथ- पैर नहीं हैं, वो आने -जाने वाले लोगों की तरफ याचना भरी दृष्टि से ऐसे निहार रहा था, जैसे चातक पक्षी वर्षा की बाट जोह रहा हो कि कब बारिश हो और वह अपने तन - मन की प्यास बुझा पाये।
उस निरीह प्राणी की देखकर मेरा मन व्यथित हो उठा कि क्या हमारे समाज का यही कर्तव्य है कि हम ऐसे दिव्यजनों की तरफ मात्र रुपया , दो रुपया ऐसे उछाल देते हैं , मानों किसी बाजीगर का खेल तमाशा हो।
और यही माहौल उस समय वहां बना हुआ था, भागम- भाग में भला किसे फुर्सत थी, कि वो अपने कर्तव्य से विमुख हो रहें हैं।
मैं दूर खड़ा इस तमाशे को देख रहा था, क
ी अचानक मेरे हृदय में मानवता का संचार हुआ और जा पहुँचा, अपने व्यथित ह्रदय को एक असीम शीतलता पहुंचाने।
कुछ समय बाद अहसास हुआ कि क्या मैं इस व्यक्ति की मदद करने में सक्षम हूँ। क्या मैं इस हाड़ - मांस के प्रतिरूप को जो केवल एक ही अवस्था में जड़ रूप है।क्या मैं इसकी पतवार बन सकता हूँ।
मन में अंतर्द्वंद्व सा चलने लगा, परिवार, समाज, परेशानी, लोक- लाज सब कुछ आंखों के सामने तैरने लगा।
कदम अनायास ही उठ खड़े हुये, और हाथ जेब में गया, कुछ रुपये दिये और हाथ जोड़कर वापिस अपने गंतव्य की और चल दिया और मन ही मन सोचता रहा शायद यही समाज का असली दर्पण है।मैं, मेरा परिवार सभी लोग इसी सोच तक सीमित हैं, भला ऐसे असहाय, निराश्रित, निरीह प्राणियों का कौन है ? मेरा मन पूरी तरह से ग्लानि से भर गया था क्योंकि मैं भी इनमें से एक था जो अपने कर्तव्य से विमुख हुआ, मात्र अपने ही स्वार्थ में संलिप्त था। अंतर्मन रो रहा था और बस भगवान से यही प्रार्थना कर रहा था, कि - -हे भगवान तू ही सहारा है।
तू ही बैशाखी, तू ही किनारा है।।