Naresh Verma

Classics

4.7  

Naresh Verma

Classics

नन्हा क़ैदी

नन्हा क़ैदी

13 mins
823


  जेल के फाटक पर पहुँच कर ड्राइवर ने कार रोक दी।मैं ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने को कहकर जेलर के आफिस कापता करता हूँ ।एक बड़ी-बड़ी मूँछों वाला सिपाही मुझे जेलर के आफिस तक ले जाता है ।सिपाही पूंछता है-"साहब जेलरसाब से क्या काम है ?"

  "मैं जूनियर सिविल जज हूँ , कोर्ट के आदेश से यहाँ आया हूँ "-मैं उसे संक्षिप्त सा उत्तर देता हूँ ।आफिस के बाहर बड़ीसी नेम प्लेट लगी थी-'एस .एस. राठौर, सुपरिटेन्डेट डिस्ट्रिक्ट जेल '।मैं सिपाही द्वारा कोर्ट का आदेश पत्र ,अंदर भिजवाताहूँ ।थोड़ी देर बाद ही सिपाही अदब से मुझे अंदर ले जाता है ।मि॰ राठौर गर्मजोशी से मेरा स्वागत करते हुए कहते हैं- वेलकम मिस्टर खन्ना ,आने में कोई कठिनाई तो नहीं हुई ।

  धन्यवाद देते हुए मैं एक कुर्सी खींच कर बैठ जाता हूँ । जेलर राठौर की उम्र ५७-५८ वर्ष के आसपास, अधपके केश,रोबीला चेहरा ।किंतु चेहरे पर थिरकती मोहक मुस्कान बयाँ करती है कि संभवत इस व्यक्ति ने अपराध के कैक्टस भरेवातावरण में कोमल पुष्पों को जतन से जीवित रखा है ।

 "मिस्टर राठौर कोर्ट के आदेश पत्र देख कर आप मेरे यहाँ आने का उद्देश्य समझ ही गए होंगे ।"-मैंने कहा ।राठौर नेस्वीकृति में अपना सिर हिलाया ।मैंने पुनः कहा-" इस से पहले कि मैं हत्या के जुर्म की सजा काट रही जेल की क़ैदीबिन्दिया से मिलूँ , मैं चाहूँगा कि आप उसकी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बतलाएँ ।"

 राठौर ने घंटी बजा कर अर्दली से दो कप चाय भिजवाने को कहकर मेरी ओर देखते हुए कहा-" यह सच है कि बिन्दिया नेहत्या जैसा अपराध किया है और वह इस अपराध के लिए दस वर्ष की सजा भी काट रही है ।किंतु मेरी विवेचना का यहविषय नहीं है कि मानव मन की कौन सी मनःस्थिति में अपराध हुआ और न ही यह कि उसे जो सजा दी गई वह उचित थीया नहीं ।यह सब तो आप स्वयं उससे मिलने पर उसकी कहानी सुनने के बाद निष्कर्ष निकाल सकेंगे ।किंतु जेल में आने केतीन महीने बाद उसने जो एक लड़के को जन्म दिया, जो जेल के आपराधिक वातावरण में अपने बचपन के चार वर्ष पूरे करचुका है ।वह बच्चा किस अपराध की सजा काटने को बाध्य है ? यदि यह एक आपराधिक माँ के गर्भ से पैदा होने की सजाहै तो इस सजा के औचित्य के लिए कौन दोषी है ?

  "दोष तो किसी का नहीं है, शायद कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते ।"-मैंने अपनातर्क दिया ।राठौर जी ने मेरे तर्क पर गौर किए बिना ही अपनी बात चालू रखी -"मेरी जेल में ही ऐसे तीन बच्चे हैं तो भारतकी विभिन्न जेलों में न जाने ऐसे कितने बच्चे होंगे जिनके अबोध मस्तिष्क को अपराध का खाद-पानी मिल रहा है ।मैं जबऐसे बच्चों के भोले चेहरे देखता हूँ तो देखकर सहम जाता हूँ कि यह भोले चेहरे भविष्य में कैसे क्रूर बन जाएँगे ।"

   " राठौर जी, मैं आपकी भावना एवं विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ ।किंतु मैं यहाँ बिन्दिया नाम के क़ैदी से मिलनेआया हूँ ।बिन्दिया के अच्छे चाल-चलन के संदर्भ में आपने उसकी सजा-माफ़ हेतु जो सिफ़ारिशी पत्र लिखे हैं, उसी कीइन्क्वायरी के लिए न्यायालय ने मुझे अधिकृत किया है ।-मैंने संदर्भ बदलते हुए कहा ।

 राठौर जी ने घंटी बजाई , तथा एक सिपाही के आने पर कहा-" बिन्दिया क़ैदी नंबर १७५ को आगन्तुक कक्ष में आने कोकहो।खन्ना साहब कोर्ट से आए हैं ।बिन्दिया से कुछ बात करेंगे ।" सिपाही के जाने पर राठौर जी ने कुर्सी से उठते हुएकहा-" चलिए आप को आगन्तुक कक्ष तक छोड़ आऊँ ।"

  जेल की ऊँची दीवार पर काँटेदार तारों की बाड़ लगी थी ।दीवार से सटा एक कमरा था,जिसका एक दरवाज़ा जेल केअंदर खुलता था तथा दूसरा दरवाज़ा बाहर खुलता था ।यह छोटा सादा कमरा ही आगन्तुक कक्ष था।कमरे की एक दीवारपर गांधी जी की तस्वीर लगी थी तथा बाक़ी दो दीवारों पर सूक्तियाँ लिखीं थीं ।कुछ कुर्सियों और एक मेज़ के अतिरिक्तकमरे में कुछ नहीं था ।

  मैं एक कुर्सी पर बैठ कर क़ैदी नंबर १७५ की प्रतीक्षा करता हूँ ।सामाजिक आचार संहिता को खंडित करने वालों कोसमाज से अलग करने की व्यवस्था का नाम है जेल ।यहाँ लोगों की पहचान उनके नाम से नहीं बरन एक संख्या से होती है………क़ैदी नंबर १७५…।दरवाज़ा खुलने से मेरी तंद्रा भंग होती है ।२२-२३ साल की एक युवती सकुचाई सी दरवाज़े सेकमरे में प्रविष्ट होती है ।दरम्याना कद ,गेहुँआ रंग,भूरी आँखें ,उलझें बेतरतीब बाल।नीली किनारी की सफ़ेद सूती धोती केअंदर एक सुडौल काया उसके आकर्षण की कहानी बयान करती थी ।

  " नमस्ते साहब जी "-वह हाथ जोड़कर कहती है ।उसका पल्लू पकड़े शर्माया सा एक छोटा लड़का भी साथ था ।दुबला-पतला, किंतु माँ की ही तरह बड़ी-बड़ी आँखें ।मैं उससे बच्चे का नाम पूछता हूँ ।

 " गोलू नाम है इसका ।गोलू …साहब जी को नमस्ते कहो।"-वह पल्लू की ओट में छिपे बच्चे को मेरे सामने खींचती है ।बच्चा झिझकता सा हाथ जोड़ देता है ।

 "बिन्दिया नाम है न तुम्हारा ,जेलर साहब ने बतलाया ।"-मैं उससे कहता हूँ तथा उसे कुर्सी पर बैठने का इशारा करता हूँ ।वह फ़र्श पर बैठने का प्रयास करती है ।" नहीं-नहीं, तुम इस कुर्सी पर बैठो "-मैं आदेश देता हूँ ।

 " नहीं साहब हम यहीं ठीक है ।"- कहते हुए वह मेरे सामने फ़र्श पर बैठ जाती है ।बच्चा भी उसके पीछे दुबक कर बैठजाता है ।

 "बहुत शर्मीला है तुम्हारा गोलू।"-मैंने मुस्करा कर बच्चे की तरफ़ देखते हुए कहा ।"नहीं साहब ! यह तो आपके सामनेशर्मा रहा है ,वरना यह तो दिन भर जेल में धमा-चौकड़ी मचाए रहता है ।"- बिन्दिया ने लाड़ जताते हुए कहा ।

 " बिन्दिया क्या कभी तुमने गोलू के भविष्य के बारे में सोचा है ?"-मैंने थोड़ा गंभीर होते हुए पूछा ।

" नहीं साहब, हमने सोचना छोड़ दिया है ।सोचने से दुःख के अलावा कुछ हासिल नहीं होता ।और फिर हम अपने बारे मेंक्यों सोचे , राम जी हैं न वही सोचेंगे हमारे और गोलू के बारे में ।"

  मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि कितनी सहजता से सुखी रहने का सरल सूत्र दे गई है यह ग्रामीण वाला।भविष्य के चिंता कीसोच ही तो सारे तनाव एवं आशंकाओं की जननी है ।

 "माना कि तुम्हें भविष्य की कोई चिंता नहीं पर तुम्हारा वर्तमान मैं देख ही रहा हूँ ।किंतु विगत में जो घटित हुआ, जिसकेकारण आज तुम जेल में हो ,क्या उसका दुख या पश्चाताप है तुम्हें ?"-मैंने पूछा ।

 " हालात और होनी पर हमारा कोई बस नहीं ।जो होना है वह तो होगा ही ।किंतु मैंने जो किया उसका न मुझे कोई दुख हैऔर न पश्चाताप ।"-उसने निर्भीकतापूर्वक कहा ।

 "देखो बिन्दिया कोर्ट के आदेश से यहाँ मैं तुमसे मिलने और तुम्हारी आपबीती सुनने आया हूँ ।तुम्हारे साथ जो हुआ उसेयदि सच-सच बतलाओगी तो शायद मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूँगा ।"-मैंने निर्लिप्त भाव से कहा ।

 बिन्दिया की यादें अतीत में खो सी गई ।अपनी कहानी जो उसने सुनाई,वह कुछ यों थी ……………


   शिवालिक पर्वत की तलहटी में एक छोटा गाँव था-मैंढ़ा।इसी गाँव में राम सिंह रावत का परिवार रहता था ।परिवार मेंपति-पत्नी के अतिरिक्त दो पुत्रियाँ एवं दो पुत्र थे ।बिन्दिया चार बच्चों में सबसे बड़ी थी, उसकी उम्र १६-१७ वर्ष थी ।छोटीसी खेती और एक गाय परिवार की आमदनी का ज़रिया था ।आर्थिक अभावों के बीच भी परिवार में सन्तुष्टि एवं प्रेम था।

  गाँव से थोड़े फ़ासले पर जंगल था , जहाँ से बिन्दिया और उसकी माँ गाय के लिए घास काटने जातीं थीं तथा लकड़ियाँभी चुन कर लातीं थी ।ऐसे ही एक दिन जब आकाश में हल्के बादल घिरे थे ।उस दिन बिन्दिया की माँ को हल्का ज्वर था।बिन्दिया ने माँ से कहा-"माँ मैं जंगल से कजरी गाय के लिए घास काट लाती हूँ ।"

 " अरी अकेली कहाँ जाएगी ,ऊपर से बादल भी घिरे हैं ।आज कजरी को सूखा चारा ही दे देंगे ।"-माँ ने बेटी को सुझावदेते हुए कहा ।"आप को मालूम है जब तक चारे के साथ हरी घास न हो कजरी चारे को मुँह नहीं लगाती।बस मैं गई औरफटाफट थोड़ी घास काट लाती हूँ ।"-कहते हुए बिन्दिया हँसिया लेकर जंगल को चल दी।

 जंगल में आज हवा कुछ तेज़ थी ।हवा की आवाज़ के अतिरिक्त जंगल में सन्नाटा व्याप्त था ।और दिन तो दो-तीन औरतेंघास काटती या लकड़ी बीनती थीं किंतु आज शायद वह अकेली थी ।वैसे जंगल का सन्नाटा उसके लिए अपरिचित भीनहीं था ।सन्नाटे के बीच चिड़ियों की चहचहाहट ऐसा संगीत रचती है जिससे बिन्दिया का मन भाव विभोर हो जाता है ।जंगल का संगीत और तेज़ गति से चलते हँसिए से कटती घास का संगीत जैसे तबले पर दो ताला लय पैदा कर रहा हो।

 बिन्दिया की आधी चादर घास से भर गई थी ।कजरी के लिए काफ़ी रहेगी।वह चादर के कोने को समेट ही रही थी किअचानक पीछे से दो मज़बूत हाथों ने उसकी दोनों बाँहें पकड़ ली थी ।उसने मुड़ कर देखा ।गाँव का ही २०-२२ साल कायुवक राजवीर था।

  राजवीर की आँखों में एक ऐसी चमक थी जिसमें वासना का दावानल दहक रहा था ।बिन्दिया सहम गई ……फिर उसनेसाहस के साथ बाँह छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा-" राजवीर मेरे हाथ छोड़ दे …नहीं तो मैं ज़ोर से चिल्लाऊँगी ।"

 राजवीर ज़ोर से हँसा ,फिर उसने कहा-"चिल्ला ज़ोर से चिल्ला, पर जंगल में तेरी आवाज़ सुनेगा कौन ।" यह कहते हुएराजवीर ने बिन्दिया को घास पर गिरा दिया ।गिरने के बाद बिन्दिया ने नाखूनों से राजवीर का मुँह खरोंच लिया ।राजवीरक्रोध में उत्तेजित होकर ज़्यादा हिंसक हो गया ।

 शिकारी ज़ोर-ज़बरदस्ती की पराकाष्ठा पर , शिकार छूटने की जी तोड़ कोशिश में।बिन्दिया हाँफते हुए निढाल सी हो गई।बिन्दिया ने गिड़गिड़ा कर हाथ जोड़ते हुए कहा-" राजवीर भगवान से डर ……ये पाप है ।किंतु वासना में अंधे राजवीर नेये सब नहीं सुना।उसने अब बिन्दिया को पूर्ण रूप से दबोच लिया था ।और…………………………

बिन्दिया को लगा कि जंगल में आग लग गई है। आग की लपटों में वह जल रही है …झुलस रही है ……

  राजवीर ने जेब से चाकू निकाला और चाकू लहराते हुए कहा-" देख यदि आज की घटना के बारे में किसी से कुछ कहातो तेरे भाई की गर्दन इसी चाकू से रेत दूँगा ……और तू इसे कोरी धमकी मत समझना ।

 वह लुटी-पिटी सी लड़खड़ाती हुई घर पहुँची ।माँ ने उसकी यह दशा देखी तो वह सहम गई।आशंकित सी माँ ने पूछा- "क्या हुआ ?

  कुछ नहीं माँ अचानक जंगल में एक भेड़िया झपट पड़ा था ।बड़ी मुश्किल से जान बचा पाई।" माँ के अनेक सवालों कोटालते हुए वह सोने का बहाना कर खाट पर लेट गई।रह-रह कर वह भयानक हादसा आँखों के आगे तैर जाता।मन-मस्तिष्क सुन्न सा हो गया था ।

 माँ से कहे न कहे ,कि कश्मकश में दिन गुजरते जा रहे थे ।एक महीने से उपर हो गया था इस घटना को।और एक दिनउसे महसूस हुआ कि उसका शरीर शिथिल सा हो रहा है ।उसे बार बार उबकाई आ रही थी ।माँ कीं दुनिया देखी आँखों सेयह कहाँ छिपता ।आशंकाओं से माँ का कलेजा काँप गया था ।

 जब बापू खेत पर चला गया तथा भाई-बहन खेलों में लग गए ।माँ ने उसे कोठरी में बुलाया तथा अंदर से दरवाज़े कीसाँकल लगा ली।माँ ने उसकी आँखों में घूरते हुए दबी आवाज़ में पूछा-" सच-सच बता उस दिन क्या हुआ था ………तूनेकहा कि भेड़िया आया था ……तो क्या नाम है उस भेड़िये का ?

 बिन्दिया फफक-फफक कर रोने लगी।इतने दिन का रूका हुआ बाँध टूटकर आंसुओं के सैलाब में बहने लगा ।माँसांत्वना में उसका सिर सहलाती रही।हिचकियों के बीच उसने सीने पर पड़े घटना के बोझ को माँ से साझा किया ।साथ हीकिसी को बतलाने पर भाई को मारने की धमकी भी बतलाना वह नहीं भूली ।

 रात में माँ और बापू काफ़ी देर तक जागते रहे थे । दूसरे कमरे से उनकी सशंकित फुसफुसाहटों की आवाज़ें उसे बेचैनकरती रही थी ।वह भी देर रात तक जागती रही थी ।अगले दिन सुबह ही बापू तैयार होकर घर से निकल गए थे ।उसके पेटमें पनपता राज,शायद घर की दहलीज़ लांघ कर सार्वजनिक होने जा रहा था ।

 बापू ने गाँव के सरपंच दलित सिंह नेगी के पैरों में अपनी टोपी रख दी।व्यथित ह्रदय से इज़्ज़त का वास्ता देते हुए न्यायकी याचना की ।सरपंच नेगी जी ८०वर्ष के धर्मपरायण एवं सुलझे विचारों के व्यक्ति थे ।हादसे की गंभीरता को देखते हुएउन्होंने गाँव की पंचायत बुलाने तथा बापू को न्याय दिलाने का आश्वासन दिया ।

 गाँव की पंचायत बैठी ।एक तरफ़ अपने माँ तथा बापू के बीच सिर झुकाए बिन्दिया बैठी।दूसरी तरफ़ अपने पिता के साथ निर्लज्जता से सिर उठाए राजवीर था ।राजवीर की इस घटना के उत्तरदायित्व से इंकार की उद्दंड एवं निर्लज्ज दलीलों कोपंचायत ने सही नहीं माना।दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद पंचायत ने फ़ैसला दिया कि बिन्दिया के गर्भ में पल रहाबच्चा राजवीर के कुकर्म का ही परिणाम है अतः राजवीर को बिन्दिया से शादी करनी होगी ।बिन्दिया के पास पंचायत केफ़ैसले को मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था ।जिस राजवीर के प्रति बिन्दिया के सीने में नफ़रत की आग दहकरही थी, उसी के साथ जीवन डोर बाँधने का फ़ैसला ?

 पंचों का फ़ैसला क्या न्याय संगत था ? क्या इससे नारी के अपमान की क्षतिपूर्ति होती थी ? संभवत: पंचायत का यहफ़ैसला नारी के मान-अपमान कीं परिधि के परे आने वाले शिशु को कुलनाम देने के परिप्रेक्ष्य में था ।

 लड़की के मन में अपनी शादी को लेकर कैसी-कैसी रूमानी कल्पनाएँ होती हैं ।किंतु बिन्दिया की शादी ?

न बैंड बाजा, न घोड़ी पर सजा दूल्हा और न बारातियों का उत्साह ।पंचायत द्वारा थोपी गई एक शादी ।बापू का अंगनापराया हो गया था ।आशंकाओं से घिरी बिन्दिया एक अवांछित मेहमान की तरह राजवीर के घर आ गई थीं ।रात घिर आईथी ।सजे पलंग की सेज पर धड़कते ह्रदय से वह पति की प्रतीक्षा कर रही थी ।किंतु पति रूप में रह रह कर एकबलात्कारी का चेहरा आँखों के आगे तैर जाता था ।

 आँधी रात बीत चुकी थी, सन्नाटा गहराता जा रहा था कि अचानक दरवाज़ा खुलने से उसकी विचार श्रृंखला टूटी।उसकापति राजवीर था ।राजवीर के कदम लड़खड़ा रहे थे, वह दारू के नशे में धुत्त था ।धप्प से वह पलंग पर बैठ गया ।राजवीरने नशे से लाल हो आईं आँखों से बिन्दिया को देखा और फिर कुत्सित हँसी के साथ बोला-"आज तो पूरी पटाखा लग रहीहै ।"

 बिन्दिया चुप रही।राजवीर ने फिर कहा-" पंचों ने तुझे मेरे गले बांध दिया है तो यह न समझना कि मैं तुझे जोरू मान लुंगा।उस दिन जंगल में समाज की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ तेरे साथ जो किया था, आज वही समाज की रज़ामंदी से करूँगा ।" बिन्दिया के सीने में नफ़रत की लहर दौड़ गई थी ।

 राजवीर ने उठकर लालटेन की लौ धीमी कर दी और एक हिंसक शिकारी की तरह अपने शिकार पर झपट पड़ा …।

 वह निस्पंद लेटी रही ………सुहाग की सेज पर एक और बलात्कार होता रहा……………।

 थोड़ी देर बाद ही नशे में चूर राजवीर सो गया ।उसके खर्राटे कमरे की निस्तब्धता भंग कर रहे थे । बिन्दिया को ऐसा लगा मानो पति के नक़ली मुखौटे में एक हिंस्र पशु सो रहा है ।उस दिन बिन्दिया को लगा था कि जंगलमें आग लग गई है, किंतु आज आग उसके सीने में दहक रही थी ……नफ़रत की आग ………नारी-सुहाग के अपमान कीआग ………।

  बिन्दिया यन्त्रचालित सी उठी।लालटेन की मद्धम रोशनी में कमरे के बाहर आई।बाहर बरामदे के कोने में खेती के औज़ार रखे थे ।उसने पेड़ काटने का चांपड़ उठा लिया ।वह कमरे में वापिस आई।

  राजवीर सो रहा था ।उसे लगा पलंग पर राजवीर नहीं महिषासुर लेटा है।उसने चांपड़ का भरपूर वार किया ……खून काफौवारा उठा ……वह छटपटाया ……फिर दूसरा वार … और सब शांत ……।बिन्दिया का चेहरा खून के छींटों से भरगया था ।उसकी माँग के लाल सिंदूर में खून का लाल रंग आ मिला था ।

 बिन्दिया को अब न कोई भय था और न पश्चाताप ।दीप्ति से तमतमाया चेहरा ……हाथ में खून से सना चांपड़……ऐसालग रहा था जैसे साक्षात रणचंडी हाथ में त्रिशूल लिए खड़ी है।


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 ड्राइवर कार स्टार्ट कर देता है ।कार जेल के फाटक से निकल कर सड़क पर आ जाती है ।जेल पीछे छूट गई है, किंतुबिन्दिया की कहानी, गोलू का भोला चेहरा मेरा पीछा करता है ।किसी की हत्या दफ़ा ३०२ का अपराध है किंतु किसी कीआत्मा की हत्या, भावनाओं की हत्या, सपनों की हत्या के लिए क़ानून की कौन सी धारा का प्रावधान है ?

 मेरी आँखों के आगे तैर जाता है कल्पना का एक चित्र जिसमें स्कूल ड्रेस पहने बैग लटकाए , स्कूल जाता गोलू ।

 कार झटका खाती है ………कल्पना का चित्र बिखर जाता है ……और यथार्थ का चित्र ……क़ैदी माँ के पल्लू के पीछेछिपा गोलू ।गोलू की बड़ी-बड़ी निरीह आँखें मेरा पीछा करती हैं ………क्या कोई राह है…?


                                

                                       


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